Friday, June 30, 2023

भरत का नंदीग्राम में जाकर श्रीराम की चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


पञ्चशाधिकशततम: सर्ग:


भरत का नंदीग्राम में जाकर श्रीराम की चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके उन्हें निवेदनपूर्वक राज्य का सब कार्य करना 


माताओं को अयोध्या में रख, दृढ़ प्रतिज्ञ भरत ने कहा 

गुरुजन से आज्ञा माँगू , अब मैं नंदीग्राम  रहूँगा


श्रीराम वियोग से उत्पन्न,  दुख महा वहीं सहन करूँगा 

इस राज्य के लाभ के हेतु,  करूँगा भाई  की प्रतीक्षा


 गये स्वर्ग पिता, राम वन में, वह गुरु हैं पूजनीय मेरे 

मंत्री और पुरोहित वसिष्ठ, शुभ वचन भरत का सुन बोले 


भातृ भक्ति से प्रेरित होकर, यह जो तुमने बात कही है 

 प्रशंसनीय होने के साथ, वास्तव में योग्य तुम्हारे है 


भाई के दर्शन भी चाहते, हित साधन में उनके लीन 

श्रेष्ठ मार्ग पर स्थित हो तुम,  करे न कौन तुम्हारा अनुमोदन 


मंत्रियों का प्रिय वचन सुना, तब सारथी से भरत ने कहा

रथ तैयार करो शीघ्र तुम, ली माताओं से भी आज्ञा 


रथ पर वे आरूढ़ हो गये,  उसी समय शत्रुघ्न के साथ

मंत्रियों और पुरोहितों से घिर,  ब्राह्मण भी चल रहे साथ


अयोध्या से पूर्वाभिमुख, नंदीग्राम का पथ पकड़ा 

अश्व, गजों रथ से भरी,  स्वयं पीछे-पीछे चल दी सेना


पुरवासी भी साथ हो लिए, भातृवत्सल भरत के पीछे 

मस्तक पर रख चरण पादुका, बहुत शीघ्रता से जाते थे 


उतर नंदीग्राम में रथ से, गुरुजनों से भरत ने कहा 

धरोहर के रूप में मुझको, भाई ने राज्य यह सौंपा 


सुवर्णाभूषित पादुकाएँ, निर्वाह करें योगक्षेम

उनके प्रति मस्तक झुकाया, राज्य कर दिया उन्हें समर्पित 


इन पर धारण करें छत्र अब, इन्हें मानूँ भाई के चरण

 इनके द्वारा ही राज्य में, परम धर्म का होगा स्थापन 


प्रेम के कारण ही भाई ने, यह धरोहर मुझे सौंप दी 

रक्षित होगी मुझ  द्वारा, उनके वापस लौटने तक ही 


इसके बाद स्वयं इनको मैं, श्रीराम को लौटा दूँगा 

पादुकाओं से सज्जित, चरण युगलों का दर्शन करूँगा 


उनके आने पर मिलते ही, राज्य समर्पित उनको कर के 

आज्ञा के अधीन रहकर, सदा सेवा में उनकी रह के 


राज्य भार तब उन्हें सौंप कर, स्वयं हल्का हो जाऊँगा

श्रीराम  की सेवा में दे, पश्चाताप से मुक्त  रहूँगा 


ककुत्स्थकुल भूषण श्रीराम के, राजा के पद पर होने से 

हर्षित होंगे लोग सभी, चौगुना मिलेगा आनंद मुझे 


इस प्रकार दीनभाव से भरकर, कर विलाप दुख मग्न भरत  

राज्य चलाने लगे वहीं से,  वह मंत्रियों के संग मिलकर 


वल्कल और जटा धारण कर, सदा मुनिवेश में वहाँ रहे 

भाई की आज्ञा पालन कर, प्रतिज्ञा के भी पार गये 


राज्य का समस्त कार्य वे, पादुकाओं को निवेदन करते 

ख़ुद ही उनपर छत्र लगाते, स्वयं ही चंवर डुलाते थे 


ख़ुद  रहकर उनके अधीन वे, मंत्रियों से कार्य  करवाते 

जो भी कार्य उपस्थित होता, प्रबंध यथावत उसका करते 



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Tuesday, June 27, 2023

अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्दशाधिकशततम: सर्ग: 


भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा

अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना 


विशाल धनुष की प्रत्यंचा ज्यों, वेगशाली तीर से कटी

स्थान भ्रष्ट दिखाई देती, उसके समान अयोध्या पुरी 


युद्धकुशल किसी घुड़सवार ने, जिस घोड़ी पर की सवारी 

सहसा शत्रु से हत हुई, वैसे ही अयोध्या नगरी थी 


दशरथ नंदन कुमार भरत, कहते वचन सारथि सुमंत्र से 

गीत और संगीत नहीं हैं, पूर्व की भाँति नाद न सुनते 


मधु की मादक गंध नहीं है, चंदन व अगरू नहीं महकें 

नहीं सवारियों की आवाज़ें,  अश्व औ’ गज नहीं चिंघाड़ें  


श्रीराम वनवास के कारण, तरुण सभी यहाँ संतप्त हैं 

पुष्पमाल ग्रहण नहीं करते, फूलों का अति ही अभाव है 


उत्सव आदि बंद हो गये, सारी शोभा विनष्ट हुई है 

भाई संग उल्लास गया, अयोध्या न शोभित होती है 


अब कब राम पधारेंगे पुन, महोत्सव की भाँति  नगर में 

ग्रीष्म ऋतु के मेघ की भाँति, ख़ुशियों का संचार करेंगे 


बड़ी-बड़ी सड़कें नगरी की, हर्षित जन को नहीं देखतीं 

इस प्रकार बात करते वे, राजा के राजमहल में गये 


सिंह से रहित गुफा की भाँति, राजा दशरथ से विहीन था 

सूर्य हीन दिवस की भाँति, शोक में डूबा  शोभारहित   था 


स्वच्छता व सजावट से विहीन, देख अयोध्या नगरी को 

 धैर्यवान थे बहुत भरत, पर, अश्रु बहाने लगे दुखी हो  


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ.




Monday, June 26, 2023

भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्दशाधिकशततम: सर्ग: 


भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना 


महायशस्वी भरत आ गये, घर्घर घोष युक्त रथ द्वारा 

शीघ्र किया प्रवेश नगरी में, अयोध्या को सूना पाया 


विचर रहे थे बिलाव, उलूक भी, घरों के किवाड़ बंद थे 

कृष्ण पक्ष की काली रात सा, अंधकार छाया नगर में 


चंद्रमा को ज्यों राहु डस ले, रोहिणी असहाय तब होती

दिव्य ऐश्वर्य से प्रकाशित, अयोध्या अब राजा हीन थी  


कृशकाय सी उस नदी सी, जल जिसका गंदला हो जाये 

भाग गये हों पक्षी सारे, मीन, ग्राह छिप जायें जल में  


धूम रहित इक ज्योति शिखा सी, जो सदा प्रकाशित होती थी 

श्रीराम के वनवास से, बुझकर जैसे लगती विलीन सी  


महा समर में संकट ग्रस्त,  दिखायी पड़ती उस सेना सी

जिसके कवच टूट गये हों, मुख्य वीरों को मृत्यु हो मिली 


फेन, गर्जना संग उठी, लहर समुद्र की शांत हो जाती 

कोलाहल पूर्ण अयोध्या अब, शब्द शून्य जान पड़ती थी  


यज्ञकाल समाप्त होने पर, शांत हुआ हो मंत्रोच्चारण

वैसे ही अयोध्या नगरी, जान पड़ती अतीव  सुनसान


समागम हेतु गैया उत्सुक हो, किंतु उसे अलग किया हो 

आर्त भाव से बंधी गोष्ठ में, अयोध्या दुखी अंतर में 


मोती की वह माला जिससे, सुंदर मणियाँ अलग की गई 

श्रीहीन हुई थी अयोध्या,  रामचन्द्र  से रहित हुई थी 


आसमान से गिरी तारिका, जैसे पुण्य भ्रष्ट हुई हो 

शोभाहीन जान पड़ती थी, जिसकी प्रभा क्षीण हुई हो 


जैसे पुष्पित लता सुशोभित, दावानल से झुलस गई हो 

अब उदास जान पड़ती थी  उल्लास पूर्ण थी पूर्व में जो


किंकर्तव्यविमूढ़ व्यापारी, बाज़ार भी कम खुले थे 

उस गगन की भाँति लगती, मेघ श्याम जहां घिर आये थे 


स्वच्छ नहीं थी गलियाँ, सड़कें, उजड़ी हुई मधुशालायें  

टूटी बिखरीं पड़ी प्यालियाँ, पीने वाले विनष्ट हुए 


दशा पुरी की उस प्याऊ सी, ढह गया जो स्तंभ टूटे हों 

जलपात्र बिखरें सभी ओर, पानी भी जिसका चुक गया हो