Wednesday, July 30, 2014

भगवान श्रीराम के द्वारा अहल्या का उद्धार

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकोनपञ्चाशः सर्गः

पितृ देवताओं द्वारा इंद्र को भेड़े के अंडकोष से युक्त करना तथा भगवान श्रीराम के द्वारा अहल्या का उद्धार एवं उन दोनों दंपति के द्वारा इनका सत्कार

अति भयभीत हुए थे इंद्र, अंडकोष से रहित हुए जब
नेत्रों में त्रास छा गया, सिद्धों, देवों से यह बोले

तप भंग करने को मैंने, गौतम मुनि को क्रोध दिलाया
हुई तपस्या भंग मुनि की, देवों का ही काम किया

भारी शाप मुझे देकर, अंडकोष से रहित है किया
हरी तपस्या मैंने उनकी, पत्नी का मुनि ने परित्याग किया

यदि ऐसा मैं न करता, देवों का राज्य छिन जाता
तुम सब मिलकर प्रयत्न करो, अब कैसे अंडकोष मैं पाता

इंद्र का जब यह वचन सुना तो, अग्नि आदि देव, मरुद्गण
कष्यवाहन व पितृ देवों के, निकट गये वे सब मिलकर

पितृ गण ! आपका भेड़ा, धारण किये दो अंडकोष है  
 अर्पण कर दें दो कोष ये, इंद्र जिससे रहित हुए हैं

परम संतोष प्रदान करेगा, अंडकोष से रहित यह भेड़ा
जो आपको करेगा अर्पण, आपसे उत्तम फल पायेगा

अग्नि की यह बात सुनी जब, किया यही पितृ देवों ने
भेड़े के अन्डकोषों को, स्थापित किया इंद्र की देह में

तब से ही समस्त पितृगण, ऐसे ही भेड़ों को पाते
दाताओं को दान जनित फिर, फलों के भागी बनाते

महातेजस्वी राम ! शीघ्र तुम, मुनि आश्रम में चलो
देवरुपिणी महाभागा जो, अहल्या का उद्धार करो

किया महर्षि को तब आगे, लक्ष्मण सहित श्रीराम ने
आश्रम में प्रवेश किया, थीं देदीप्यमान अहल्या तप से

देख नहीं सकते थे उनको, देव असुर कोई भी आकर
मायामयी सी वह लगती थीं, दिव्य स्वरूप किये थीं धारण

बड़े जतन से रचे अंग थे, घिरी धूम से अग्निशिखा सी
ढकी बादलों व ओले से, पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा सी

जल के भीतर उद्भासित हो, सूर्य की दुर्धर्ष प्रभा सी
शाप मिला जब से गौतम का, हर प्राणी से अदृश्य थीं

श्रीराम का दर्शन पाकर, अंत हुआ उनके शाप का
लक्ष्मण संग किया राम ने, स्पर्श अहल्या के चरणों का

मुनि वचनों को कर स्मरण तब, अहल्या ने किया सत्कार
अतिथि रूप में अपनाया फिर, पाद्य अर्घ्य आदि अर्पित कर

श्रीराम ने शस्त्रीय विधि से, आतिथ्य उनका अपनाया
देवों की दुन्दुभी बजी तब, फूलों को नभ से बरसाया

उत्सव सभी मनाते थे तब, गन्धर्व, अप्सराएँ मिलकर
विशुद्ध रूप को प्राप्त हुईं सब, करें प्रशंसा हर्षित होकर

महातेजस्वी गौतम भी तब, हर्षित हुए उन्हें देखकर
श्रीराम की पूजा करके, पुनः तपस्या आरम्भ कर

मिथिलापुरी को गये राम भी, गौतम से पाकर सत्कार
लक्ष्मण सहित बढ़ चले मार्ग पर, विश्वामित्र मुनि के साथ

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Friday, July 25, 2014

विश्वामित्र का उनसे अहल्या को शाप प्राप्त होने की कथा सुनाना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

अष्टचत्वारिंशः सर्गः
 राजा सुमति से सत्कृत हो एक रात विशाला में रहकर मुनियों सहित श्रीरामका मिथिलापुरी में पहुंचना और वहाँ सूने आश्रम के विषय में पूछने पर विश्वामित्र का उनसे अहल्या को शाप प्राप्त होने की कथा सुनाना

पूछा राजा सुमति ने तब, परस्पर जब हुआ मिलन
देवकुमारों से लगते हैं, ये दो वीर सिंह, सांड समान

चाल-ढाल हाथी, सिंह सम है, नेत्र कमलदल से हैं सुंदर
रूपवान हैं युवा वीर ये, लिए धनुष, तीर, तलवार

किसके पुत्र, किस हित आये हैं, देवलोक से आये लगते
चन्द्र और सूर्य की भांति, इस भूमि को शोभित करते

एक समान दिखाई देते, मनोभाव व बोलचाल में
पैदल चलकर कठिन मार्ग पर, क्यों आये हैं इसे कहें

सुमति का यह वचन सुना तो, विश्वामित्र ने सब बताया
सिद्धाश्रम का घटनाक्रम भी, दैत्यों का वध कह सुनाया

विस्मित हुआ नरेश सुनकर यह, विधिपूर्वक किया सम्मान  
रहे रात भर वे सब सुख से, प्रातः काल किया प्रस्थान

साधु, साधु कह उठे महर्षि, मिथिला पहुंच जब देखी शोभा 
दिखा पुराना एक आश्रम, बड़ा रमणीय पर सुनसान था

मुनिवर से राम ने पूछा, भगवन ! यह स्थान है कैसा
कोई यहाँ नजर न आता, किसका यह हुआ करता था

श्री राम का प्रश्न सुना जब, कथा सुनाई विश्वामित्र ने
 क्रोध से किसने शाप दिया, था किसका यह पूर्वकाल में

गौतम मुनि का था आश्रम, दिव्य जान पड़ता था तब
अहल्या पत्नी थी उनकी, जिसके संग करते थे तप

एक दिन जब नहीं थे गौतम, इंद्र उस आश्रम में आया
अहल्या से की प्रेम याचना, गौतम मुनि का वेश बनाया

इंद्र को पहचान लिया था, किन्तु अहल्या हुई प्रभावित
इंद्र चाहते हैं मुझको, इस अभिमान से हुई ग्रसित

प्रेम निवेदन किया स्वीकार, हुई कृतार्थ आपसे मिलकर
गौतम मुनि आते ही होंगे, जाएँ यहाँ से हे देवेश्वर !

हँसते हुए इंद्र बोला यह, मैं भी अब संतुष्ट हुआ हूँ
मिलने यहाँ जैसे आया था, उसी तरह अब जाता हूँ

कुटिया से निकले इंद्र तब, गौतम के आने के डर से
वेगपूर्वक फिर लगे भागने, तब वे बड़ी उतावली से

इतने में ही उन्होंने देखा, महामुनि समिधा ले आते
भीगा तन तीर्थ के जल से, उद्दीप्त प्रज्ज्वलित अग्नि से

भय से थर्रा उठे इंद्र तब, मुख पर भी विषाद छा गया
मुनि वेश धारे इंद्र को, देख सदाचारी गौतम ने कहा

मेरा रूप धरा है तूने, अकरणीय यह पाप है किया  
इसलिए दंडित करता हूँ, इस क्षण से तू विफल हो गया

भरे रोष में तब गौतम के, वचन निकते ही मुख से
तत्क्ष्ण ही गिर पड़े धरा पर, दोनों अंडकोष इंद्र के

इंद्र को ऐसा शाप दिया फिर, पत्नी को ये वचन कहे
कष्ट उठाती वर्ष हजारों, दुराचारिणी ! तू पड़ी रहे

औरों से अदृश्य रहेगी, हवा पीकर या कर उपवास
जब दशरथ कुमार आयेंगे, तभी मिटेगा तेरा त्रास

लोभ-मोह तेरे छूटेंगे जब, उनका तू आथित्य करेगी,
पूर्व शरीर धारण कर तत्क्ष्ण, हो प्रसन्न मुझ तक पहुंचेगी

महातेजस्वी गौतम मुनि तब, कहकर ऐसा चले गये
सिद्धों व चारणों से सेवित, शिखर हिमालय पर तप करने  

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Monday, July 21, 2014

दिति का अपने पुत्रों को मरुद्गण बनाकर देवलोक में रखने के लिए इंद्र से अनुरोध

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तचत्वारिंशः सर्गः

दिति का अपने पुत्रों को मरुद्गण बनाकर देवलोक में रखने के लिए इंद्र से अनुरोध, इंद्र द्वारा उसकी स्वीकृति, दिति के तपोवन में ही इक्ष्वाकु-पुत्र विशाल द्वारा विशाला नगरी का निर्माण तथा वहाँ के तत्कालीन राजा सुमति द्वारा विश्वामित्र मुनि का सत्कार

गर्भ के टुकड़े हुए देखकर, दिति को हुआ था दुःख भारी
दुर्द्धर्ष सहस्राक्ष इंद्र से, विनय पूर्वक वह ये बोलीं

देवेश ! मैं थी अपराधी, इससे ही यह दुःख पाया है
नहीं तुम्हारा दोष है इसमें, तुमने क्रूर जो कर्म किया है

कैसे अब यह प्रिय हो जाये, मेरे और तुम्हारे भी हित
वैसा ही उपाय मैं चाहूँ, खंड बनें ये मरुद्गण सात

दिव्य रूपधारी ये पुत्र, मारुत नाम से हों प्रसिद्द
सात वातस्कंध में विचरें, मुक्त गगन में सात मरुद्गण

ब्रह्म लोक में पहला विचरे, इंद्र लोक में दूजा गण
वायु नाम से अन्तरिक्ष में, महायशस्वी तीसरा गण

हो कल्याण तुम्हारा इंद्र, शेष चार दिशाओं में हों
तुमने मा रुदः नाम दिया है, मारुत नाम ही उनका हो

दिति का जब यह वचन सुना, इंद्र हाथ जोड़कर बोले
होगा वही जो माँगा तुमने, कोई संशय नहीं है इसमें

ऐसा निश्चय करके दोनों, स्वर्गलोक को चले गये
यही देश है राम जहाँ पर, सेवा दिति की, की इंद्र ने

पूर्वकाल में इक्ष्वाकु के, पुत्र विशाल नामके थे
अम्बुलषा के गर्भ से जन्मे, विशाला पुरी बसायी जिसने

हेमचन्द्र थे उनके पुत्र, प्रपौत्र थे वीर सुचन्द्र
सुचन्द्र के पुत्र धूमाश्व, धूमाश्व के थे सृंजय

सहदेव सृंजय के बेटे, कुशाश्व थे सहदेव के
सोमदत्त कुशाश्व के पुत्र, काकुत्स्थ थे सोमदत्त के

काकुत्स्थ के महातेजस्वी, सुमति नाम के पुत्र हुए हैं
परम कांतिवान वीर वे, इस समय यहाँ बसते हैं

सभी नरेश हुए धार्मिक, महा प्रसाद से इक्ष्वाकु के
आज रात हम यहीं रुकेंगे, कल चलकर मिथिला पहुंचेंगे

विश्वामित्र को आया जान, आये वहाँ पर सुमति राजा
बन्धु बांधवों, संग पुरोहित, हाथ जोड़कर की थी पूजा

धन्य हुआ मैं, आये आप, बड़ा आपका अनुग्रह मुझपर
दर्शन दिए आपने हमको, मुझसे नहीं है कोई बढ़कर


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.



  

Friday, July 18, 2014

पुत्रवध से दुखी दिति का कश्यपजी से इंद्रहन्ता पुत्र की प्राप्ति के उद्देश्य से तप के लिए आज्ञा

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षट्चत्वारिंशः सर्गः
 पुत्रवध से दुखी दिति का कश्यपजी से इंद्रहन्ता पुत्र की प्राप्ति के उद्देश्य से तप के लिए आज्ञा लेकर कुश्प्ल्व में तप करना, इंद्र द्वारा उनकी परिचर्या तथा उन्हें अपवित्र अवस्था में पाकर इंद्र का उनके गर्भ के सात टुकड़े कर डालना

निज पुत्रों के हत होने पर, दिति को दुःख हुआ भारी
मरीचिनन्दन पति कश्यप के, निकट पहुंच उनसे बोली

महाबली ! आपके पुत्रों ने, मेरे पुत्रों की, की है हत्या
मैं भी वीर पुत्र चाहती, दीर्घकाल कर महा तपस्या

इंद्र का वध करने में जो, सक्षम हो वह महाबली
पुत्र प्रदान करें एक ऐसा, आज्ञा दे दें तप करने की

कश्यप बोले दुखिनी पत्नी को, तपोधने ! ऐसा ही हो
शौचाचार करो तुम पालन, पुत्र तुम्हें ऐसा प्राप्त हो

एक हजार वर्ष तक यदि तुम, पावन होकर रह सकती हो
इंद्र का वध करने में सक्षम, पुत्र प्राप्त कर सकती हो

कहकर ऐसा उसके तन पर, हाथ फिराया मुनि कश्यप ने
हो कल्याण तुम्हारा कहकर, चले गये तपस्या करने  

दिति अत्यंत हर्ष में भरकर, कुशप्ल्व नामक वन में आयीं
पुत्र प्राप्ति के हित तब वे, कठिन तपस्या में रत हुईं  

सहस्र लोचन इंद्र विनय से, सेवा करने उनकी आये
अग्नि, कुशा, काष्ठ, जल, आदि, मौसी हित लाकर देते

पैर दबाकर थकन मिटाते, अभिलषित वस्तुएं लाते
अन्य आवश्यक सेवाओं से, दिति की परिचर्या करते

एक हजार वर्ष होने में, केवल जब दस वर्ष शेष थे
तब अत्यंत हर्ष में भरकर, दिति ने कहे वचन इंद्र से

बलवानो में श्रेष्ठ वीर हे !, तप पूरा होने है वाला
दस वर्ष ही शेष रहे हैं, भाई तुम्हारा जब जन्मेगा

तुम्हें नष्ट करने वाला जो, पुत्र वीर चाहा था मैंने
उसे शांत कर दूंगी अब मैं, जब उत्सुक होगा तुम्हें जीतने

बैर भाव से रहित उसे मैं, भ्रातृ स्नेह से करूंगी युक्त
उसके साथ प्रेम से रह कर, तुम भोगना विजय का सुख

पुत्र का वर दिया है मुझको, सुरश्रेष्ठ, तुम्हारे पिता ने
ऐसा कहकर हुई अचेत थीं, बैठे आसन पर दिति नींद से

सिर उनका झुक गया था तब, पैरों से लगा था जाकर
पैरों पर केशों को डाला, हँसे इंद्र अपवित्र जानकर

माता दिति के उदर में जाकर, सात भाग कर दिए गर्भ के
रोने लगा जोर से बालक, हुआ विदीर्ण जब वह वज्र से

दिति की निद्रा टूट गयी तब, उठ बैठीं जागकर वे
मत रो, मत रो ! कहा इंद्र ने, टुकड़े लेकिन कर ही डाले

दिति ने कहा, उसे मत मारो, बाहर आये इंद्र तभी
व्रज सहित हाथ जोड़कर, दिति से तब क्षमा मांगी

सिर पैरों से लगा था जाकर, अवस्था को अपवित्र जान
यही छिद्र पाकर मैंने, इंद्र हन्ता को किया विदीर्ण

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छियालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Wednesday, July 16, 2014

भगवान रूद्र द्वारा हालाहल विष का पान

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

पंचचत्वारिंशः सर्गः
देवताओं और दैत्यों द्वारा क्षीर-समुद्र-मंथन, भगवान रूद्र द्वारा हालाहल विष का पान, भगवान विष्णु के सहयोग से मन्दराचल का पाताल से उद्धार और उसके द्वारा मंथन, धन्वन्तरि, अप्सरा, वारुणी, उच्चैःश्रवा, कौस्तुभ तथा अमृत की उत्पत्ति और देवासुर-संग्राम में दैत्यों का संहार  

अग्रगण्य जो देवों में थे, रूद्र देव को कहा हरि ने
प्रथम वस्तु जो प्राप्त हुई, भाग आपका यह विष है

ग्रहण करें इस विष को आप, जान अग्रपूजा अपनी
अन्तर्धान हुए तत्क्ष्ण तब, कहकर ऐसा देव शिरोमणि

देवों का जब भय देखा, सुनी बात श्री हरि की शिव ने
हालाहल घोर विष को तब, धारण किया निज कंठ में  

देव-असुर फिर दोनों मिलकर, मंथन करने लगे सिंधु का
उसी समय पर्वत मन्दर ने, पाताल में था प्रवेश किया

देव और गन्धर्व ने मिलकर, की स्तुति मधुसूदन की
देवों के अवलम्ब आप हैं, आप ही हैं जीवों की गति

रक्षा करें आप ही भगवन !, इस पर्वत को आप उठायें
कच्छप रूप धरा हरि ने तब, पीठ पर रखा और सो गये

स्वयं ही फिर शिखर पकड़ कर, मंथन किया संग देवों के
एक हजार वर्ष बीते जब, पुरुष एक प्रकटे सागर से

एक हाथ में दंड लिए थे, दूजे में कमंडल धारे
धन्वन्तरि नाम था उनका, आयुर्वेद के वे ज्ञानी थे

सुंदर काँति युक्त अनेकों, अप्सराएँ फिर प्रकट हुईं
नाम यही अनुकूल था उनका, अप के रस से थीं प्रकटी

साठ करोड़ थीं संख्या में वे, अनगिन थीं सेविकाएँ उनकी
पत्नी रूप से नहीं पा सके, देव या दानव जिन्हें कोई भी

वरुणदेव की पुत्री वारुणी, तब सागर मंथन से प्रकटी
जो सहर्ष उन्हें स्वीकारे, करने लगीं खोज उस नर की

सुरा की अभिमानिनी देवी, असुरों ने नहीं ग्रहण किया
अदिति के पुत्रों ने लेकिन, अनिन्ध्य सुन्दरी को पाया

सुरा रहित होने के कारण, दैत्य असुर तब कहलाये थे
सुरा-सेवन के कारण ही, अदिति पुत्र सुर संज्ञा पाए

हर्ष से उत्फुल्ल हुए देव गण, वारुणी पाकर आनन्दित भी  
उत्तम अश्वों में उच्चैःश्रवा, प्रकटे अमृत व कौस्तुभ मणि

अमृत हित फिर युद्ध हुआ था, देवों और असुरों में तब
राक्षसों को साथ कर लिया, महाघोर संग्राम छिड़ा जब

क्षीण हुआ अति वह समूह जब, विष्णु ने फैलाई माया
रूप मोहिनी का धारण कर, अमृत का अपहरण कर लिया

जिन दैत्यों ने युद्ध किया था, अमृत पाने हित विष्णु से
मारे गये सभी वे योद्धा, उस अति घोर महायुद्द में

हुए पराजित सभी दैत्य जब, इंद्र हुए अति प्रसन्न
त्रिलोकी का राज्य पाया, ऋषिगण व सहित चारण


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.