Wednesday, December 18, 2013

श्री राम द्वारा विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों का संहार

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रिंश सर्गः
श्री राम द्वारा विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों का संहार

तत्पश्चात देशकालज्ञ, राम, लक्ष्मण दोनों बोले
कब करते आक्रमण निशाचर, कहीं चूक न हो हमसे

हैं तैयार युद्ध हेतु वे, हर्षित हुए जान मुनि अन्य
विश्वामित्र अब मौन रहेंगे, दीक्षा लेकर हुये हैं धन्य

सावधान हो दोनों वीर, छह रात्रि तक करें सुरक्षा
नींद और विश्राम थे त्यागे, अंततः आया दिन छठा

श्रीराम ने कहा लखन से, सावधान हो, रहो समाहित
कह ही रहे थे अभी राम, जब वेदी सहसा हुई प्रज्वलित

राक्षसों का उत्पात था, वेदी का जलना था सूचक
बड़ा भयंकर शब्द हुआ फिर, वेद मंत्र गूंजते थे जब

मेघ घेर लेते ज्यों नभ को, दो राक्षस माया धारी
दौड़े चले आ रहे थे, लिए साथ में अनुचर भारी

धाराएँ रक्त की बहाते, आकाश में स्थित थे वे
रामचन्द्र जी सहसा दौड़े, देख उन्हें लक्ष्मण से बोले

आ पहुंचे दुराचारी वे, मानवास्त्र से दूर भगाऊँ
जैसे वायु वेग से बादल, नहीं चाहता इन्हें मैं मारूं

कहकर ऐसा श्री राम ने, मानवास्त्र का किया संधान
बड़े रोष में भरकर फिर, मारीच को मारा बाण

सौ योजन दूर जा गिरा, था आघात बड़ा गहरा
शीतेषु मानवास्त्र से, हो अचेत सा चला जा रहा

प्राण नहीं लेता है उसके, लक्ष्मण से कहा राम ने
मार गिराता अब अन्यों को, विघ्न डालते जो यज्ञ में

आग्नेयास्त्र का कर प्रयोग, सुबाहु को मार गिराया
वायवास्त्र से अन्यों का वध, कर मुनियों को हर्षाया

पूर्वकाल में देवराज ज्यों, महर्षियों से हुए थे वन्दित
ऋषियों द्वारा उसी प्रकार, श्रीराम भी हुए सम्मानित

यज्ञ समाप्त हुआ जब मुनि का, विघ्न हीन दिशाएँ देखीं
कहा राम से, हुआ कृतार्थ मैं, आज्ञा तुमने मानी गुरु की



इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तीसवां सर्ग पूरा हुआ.

Thursday, December 12, 2013

दोनों भाईयों के साथ मुनि का अपने आश्रम पर पहुंचकर पूजित होना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकोनत्रिंशः सर्गः
विश्वामित्र का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्व वृत्तांत बताना और उन दोनों भाईयों के साथ अपने आश्रम पर पहुंचकर पूजित होना 

असुरसूदन, हे नारायण !, इंद्र अनुज बन जाएँ आप
पीड़ित हुए देवताओं के, बन सहाय मिटायें संताप

सिद्धाश्रम कहलायेगा यह, तप आपने किया यहाँ है
कार्य सिद्ध हुआ आपका, अब न श्रम शेष रहा है  

महातेजस्वी श्री विष्णु तब, प्रकटे थे अदिति की कोख से
वामन रूप बनाकर अपना, विरोचन सुत के निकट गये थे

इंद्र पुनः हो स्वर्ग का शासक, त्रिलोकी के हित साधक थे
त्रिपग भूमि मांगी बलि से, उससे लेने में सक्षम थे

उन्हीं में भक्ति है मेरी सो, मैंने यहीं निवास बनाया
दुःख-शोक का नाश यहाँ पर, इसके हित ही तुम्हें बुलाया

यहीं राक्षस आते हैं जो, विघ्न यज्ञ में डाला करते
यहीं तुम्हें वध करना उनका, शुभ कार्य में बाधक बनते

तुम भी अपना इसे समझना, यह आश्रम मेरा है जैसे
कहकर ऐसा बड़े प्रेम से, मुनि ने हाथ गहे दोनों के

किया प्रवेश आश्रम में तब, राज कुमारों सहित मुनि ने
हो तुषार रहित चन्द्रमा, ज्यों दो पुनर्वसु तारों में

हर्षित होकर सभी तपस्वी, आए निकट उन्हें देखकर
स्वागत किया राजपुत्रों का, यथायोग्य मुनि पूजा मिलकर

दो घड़ी विश्राम किया फिर, शत्रु दमन राम यह बोले
हो कल्याण आपका मुनिवर, दीक्षा आप आज ही ले लें

सिद्ध हो सके कार्य आपका, इस आश्रम का नाम सफल हो
राक्षसों के वध के विषय में, बात आपकी सत्य सिद्द हो

सुन ऐसा तब विश्वामित्र ने, ली नियमपूर्वक यज्ञ दीक्षा
सजग कुमार रात्रि बिताकर, करने लगे जप गायत्री का

सन्ध्योपासना पूर्ण हुई तब, स्नान आदि से शुद्ध हुए थे
जप पूर्ण कर हुए सम्बोधित, अग्निहोत्र कर बैठे मुनि से


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनतीसवां सर्ग पूरा हुआ.



Friday, November 29, 2013

विश्वामित्र का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्व वृत्तांत बताना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकोनत्रिंशः सर्गः
विश्वामित्र का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्व वृत्तांत बताना और उन दोनों भाईयों के साथ अपने आश्रम पर पहुंचकर पूजित होना

वचन सुना जब श्रीराम का, अपरिमित बलवान जो थे
उत्तर देना किया प्रारम्भ, महातेजस्वी विश्वामित्र ने

देववंदित प्रभु विष्णु ने, यहाँ किया तप पूर्वकाल में
‘वामन’ का अवतार लिया जब, रहते थे इस आश्रम में

यहीं तपस्या में वे रत थे, यहीं प्राप्त की थी सिद्धि
सिद्धाश्रम कहलाया तब  ये, युग-युग तक तपस्या की

हुआ पराभव तब देवों का, बलि राजा विख्यात हुआ
इंद्र, मरुद्गण हुए पराजित, असुरराज ने यज्ञ किया

अग्नि आदि सब देवों ने, मिल विष्णु से ये वचन कहे
यज्ञ पूर्ण हो बलि का, इससे पूर्व कार्य सिद्ध हम कर लें

हर याचक की इच्छित वस्तु, यथारूप बलि अर्पित करते
वामन वेश बना आप भी, देवताओं का हित साधें

इसी समय अदिति के साथ, कश्यप मुनि वहाँ पधारे
 दीर्घ काल का व्रत पूर्ण कर, अग्निसम वे दीप्त हुए

वरदायक भगवान विष्णु की, सुंदर स्तुति की मुनि ने
तप राशि ! हे ज्ञान स्वरूप !, तप से आपके दर्शन मिलते

सारा जगत आपमें स्थित, हे अनादि ! मैं शरणागत हूँ
देश, कल से परे आप हैं, नहीं समर्थ जानने में हूँ

कश्यप जी निर्दोष हो चुके, श्रीहरि हुए प्रसन्न देख के
हो कल्याण तुम्हारा मुनिवर, हो योग्य तुम वर पाने के

वचन सुना जब प्रभु का सुंदर, मरीचि नन्दन कश्यप बोले
उत्तम व्रत पालक हे ईश्वर, एक याचना मेरे मन में  

अदिति सहित देवगण भी यह, वर आपसे यही मांगते
हे नारायण ! पुत्र रूप में, आप हमारे घर आयें  

Tuesday, November 26, 2013

श्रीराम का एक आश्रम एवं यज्ञ स्थान के विषय में मुनि से प्रश्न

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

अष्टाविंशः सर्गः



विश्वामित्र का श्रीराम को अस्त्रों की संहार विधि बताना तथा उन्हें अन्यान्य अस्त्रों का उपदेश करना, श्रीराम का एक आश्रम एवं यज्ञ स्थान के विषय में मुनि से प्रश्न 

रघुकुल नन्दन राम ने कहा, अभी आप जाएँ निज धाम
किन्तु जरूरत पड़े जिस समय, मनोस्थित हो जाएँ आप

तत्पश्चात परिक्रमा करके, अस्त्रों ने किया प्रस्थान
श्रीराम ने पूछा मुनि से, पाया जब अस्त्रों का ज्ञान

सम्मुख जो पर्वत दिखता है, सघन वृक्ष से ढका हुआ
मन में है उत्कंठा जागी, पशुओं से जो भरा हुआ

पक्षी गीत वहाँ गाते हैं, मनहर है यह सुंदर वन
मानो कठिन ताटका वन से, दूर निकल आए अब हम

कौन यहाँ रहता है प्रभुवर, यज्ञ हो रहा कहाँ आपका
कहाँ मुझे रक्षा करनी है, उस आश्रम का देश कौन सा

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अट्ठाईसवां सर्ग पूरा हुआ.



Tuesday, November 5, 2013

विश्वामित्र का श्रीराम को अस्त्रों की संहार विधि बताना



श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

अष्टाविंशः सर्गः

विश्वामित्र का श्रीराम को अस्त्रों की संहार विधि बताना तथा उन्हें अन्यान्य अस्त्रों का उपदेश करना, श्रीराम का एक आश्रम एवं यज्ञ स्थान के विषय में मुनि से प्रश्न

ग्रहण किया जब अस्त्रों को, मुख राम का खिला ख़ुशी से
देवों से भी दुर्जय हूँ अब, चलते-चलते कहा मुनि से

कृपा आपकी मुझ पर है यह, ककुत्स्थ कुल तिलक राम बोले
महातपस्वी, धैर्यवान हे !, कहें विधि संहार की इनसे

उत्तम व्रतधारी मुनिवर ने, दिया उपदेश ‘संहार विधि’ का
अस्त्र विद्या के योग्य पात्र तुम, रघुवर ! हो कल्याण तुम्हारा

ग्रहण करो और अस्त्रों को, प्रजापति कृशाश्व के पुत्र हैं
इच्छाधारी, परम तेजस्वी, आगे इनके नाम कहे हैं

सत्यवान, सत्यकीर्ति, धृष्ट, रभस, प्रान्गमुख, प्रतिहारतर
लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाभ, सुनाभ, द्शशीर्ष, दशाक्ष, शतवक्त्र

अवांग मुख, पद्मनाभ, महानाभ स्वनाभ, शकुन
हैं अद्भुत अस्त्र सभी ये, सर्पनाथ, पन्थान, वरुण

दुन्दुनाभ, ज्योतिष, निरस्य, विमल, दैत्य्नाश्क योगन्धर
शुचिबाहु, निष्कलि, विरुच, धृतिमाली, सौमनस, रुचिर

सर्चिमाली, पिव्य, विधूत, विनिन्द्र, मकर, परवीर, रति
धन, धान्य, कामरूप, मोह, आवरण, जुम्भ्क, कामरूचि

श्री राम ने पुलकित मन से, ग्रहण किया सभी अस्त्रों को
दिव्य तेज से उद्भासित थे, मूर्तिमान, सुखकारी थे जो

कुछ थे अंगारों से प्रज्ज्वलित, कितने ही धूम सम काले
सूर्य, चन्द्रमा के समान कुछ, सब सम्मुख थे श्री राम के

अंजलि बांधे मधुर स्वरों में, श्रीराम से वे ये बोले
पुरुष सिंह हम दास आपके, दे आज्ञा हम क्या सेवा दें




Thursday, September 26, 2013

विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को दिव्यास्त्र-दान


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तविंशः सर्गः
विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को दिव्यास्त्र-दान

ताटका वन में रात्रि बिताकर, मधुर स्वर में मुनि बोले
महायशस्वी राजपुत्र हे !, हूँ संतुष्ट अति मैं तुमसे

चाहे कोई भी हो शत्रु, असुर, नाग, गन्धर्व, देव सा
विजय सदा पाओगे इनसे, अस्त्र तुम्हें जो मैं देता

 हो कल्याण तुम्हारा रघुवर, दिव्य, महान अस्त्र लेकर
दंड, धर्म, काल, व विष्णु, तथा भयंकर एन्द्र का चक्र

नरश्रेष्ठ हे ! वज्र इंद्र का, लो शिव का श्रेष्ठ त्रिशूल भी
ब्रह्माजी का ब्रह्मशिर नामक, एषीकास्त्र व ब्रह्मास्त्र भी

इनके सिवा गदाएँ भी दो, शिखरी और मोदकी सुंदर
काल पाश व पाश वरुण लो, राम तुम्हें मैं करता अर्पण

सुखी, गीली, दोनों अशनि, नारायण, पिनाक अस्त्र भी
अग्नि, वायव्यास्त्र भी ले लो, क्रौंच अस्त्र व हयशिरा भी

किंकणी और कपाल अस्त्र संग, मूसल व कंकाल अस्त्र  
ऐसी दो शक्तियाँ भी लो, राक्षस जिनसे हो सकते हत

विद्याधरों का नन्दन नामक, गन्धर्वों का सम्मोहन भी
प्रसवापन, प्रशमन, अस्त्र संग, उनका ही सौम्य अस्त्र भी

महायशस्वी पुरुष सिंह हे, वर्षन, शोषण सन्तापन भी
कामदेव का प्रिय मादन लो, गन्धर्वों का मानवास्त्र भी

मोहनास्त्र भी ग्रहण करो तुम, मौसल, दुर्जय तामस, सौमन
सूर्यदेव का तेज प्रभ जो, शत्रु तेज को लेता है हर

सोम देव का शिशिर अस्त्र, त्वष्टा का दारुण अस्त्र
महा भयंकर भग देव का, मनु का भी शीतेषु अस्त्र  

बल से सम्पन्न सभी अस्त्र हैं, इच्छा धारी परम उदार
करो ग्रहण शीघ्र इनको तुम, महाबली हे राज कुमार

ऐसा कहकर मुनि बैठ गये, मुख करके पूर्व दिशा को
अति हर्षित मुनिवर ने फिर, उन अस्त्रों को दिया राम को

जैसे ही आरम्भ किया जप, दिव्यास्त्र सब हुए उपस्थित
हाथ जोडकर कहा राम से, हम सब हैं आपके किंकर

जो सेवा लेना चाहेंगे, देने को तैयार हैं हम सब
अति प्रसन्न हुए राम अब, स्पर्श किया उन सबका तब

ग्रहण किया राम ने उनको, स्थान दिया मन में अपने   
 किया प्रणाम मुनि को झुक कर, हुई आरम्भ यात्रा आगे

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्ताईसवां सर्ग पूरा हुआ.
  


Thursday, September 12, 2013

श्रीराम द्वारा ताटका वध -अंतिम भाग

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षड्विंशः सर्गः
श्रीराम द्वारा ताटका वध 

इच्छाधारी थी ही ताटका, रूप अनेकों धारण करती
राम-लखन को डाल मोह में, पल भर में अदृश्य हो गयी

विचरण करने लगी गगन में, पत्थर की वर्षा तब हुई
कहा मुनि ने श्री राम से, व्यर्थ तुम्हारी करुणा गयी  

दुराचारिणी है यह पापिनी, विघ्न सदा यज्ञों में डाले
सांयकाल में होकर दुर्जय, पुनः प्रबल हो न माया से

बात सुनी जब मुनिवर की तब, शब्दबेधी बाण चलाया
प्रस्तर की वर्षा करती हुई, यक्षिणी को अवरुद्ध किया

घिर गयी जब बाण समूह से, गर्जन करती लपकी उनपर
इंद्र वज्र सा देखा आते, आहत किया था बाण मारकर

गिरी भूमि पर मृत होकर जब, देवों ने की थी सराहना
सुंदर वचन कहे ये मुनि को, इंद्र सहित वहाँ आए देवता

 प्रकट करें राम पर स्नेह अब, देवों को किया संतुष्ट
अर्पित करें शस्त्रों को जो, प्रजापति कृशाश्व के पुत्र

ये सुपात्र हैं अस्त्र दान के, सेवा करते सदा आपकी
 सम्पन्न होगा कार्य महान, देवों का इनके द्वारा ही

ऐसा कह देव चले गये, संध्या की हुई फिर बेला  
विश्वामित्र ने मस्तक सूंघा, फिर राम से वचन कहा

आज रात यही ठहरेंगे, कल पुनः जायेंगे आश्रम
सुख से यहाँ बिताओ रात, शापमुक्त हो गया है वन

चैत्ररथ था जैसा मनहर, वैसा ही वन बना था सुन्दर
प्रातःकाल की. की प्रतीक्षा, रात्रि वहीं बिताई सुखकर  

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छबीसवां सर्ग पूरा हुआ.