Wednesday, June 29, 2011

सप्तमोऽध्यायः ज्ञानविज्ञानयोग


  सप्तमोऽध्यायः
ज्ञानविज्ञानयोग

योग साधना कर हे अर्जुन, अनन्य प्रेम तू कर मुझसे
नहीं परायण हो किसी के, अपना चित्त लगा मुझमें

मैं विभूति सम्पन्न बली, ऐश्वर्यशाली परमात्मा  
संशय रहित पार्थ हे सुन, निस्संदेह मैं सबका आत्मा

जिसे जानकर जग में तुझको, कुछ जानना न शेष रहेगा
तत्व ज्ञान, विज्ञान सहित, तेरे हित यह कृष्ण कहेगा

कोई एक हजारों में से, मुझको सचमुच पाना चाहे
उनमें से भी कोई बिरला, यथार्थ रूप से मुझको जाने

पंच भूत पृथ्वी, जल आदि, मन, बुद्धि व अहंकार
अपरा प्रकृति जड़ है मेरी, ये हैं उसके आठ प्रकार

एक और परा प्रकृति है, यह जग किया है जिसने धारण
जीवरूपा परा प्रकृति वह, वही जगत का चेतन कारण

इन दोनों से ही जन्मे हैं, प्राण किये हैं सबने धारण
मैं ही प्रभव, प्रलय भी हूँ, मैं ही हूँ इस जग का कारण

मुझसे भिन्न न दूजा कारण, यह जग मुझसे ही उपजा है
जैसे धागे का इक माल, धागे के मोती से गुंथा है

सूत के मनके सूत की माला, सूत बिना कुछ और नहीं है
मुझसे उपजा, टिका है मुझमें, दूजा कोई ठौर नहीं है

हे अर्जुन, मैं जल में रस हूँ, हूँ प्रकाश चन्द्र, सूर्य में
ओंकार वेदों में पावन, शब्द गगन में पुरुषत्व, पुरुष में

पावन गंध धरा की मैं हूँ, तेज अग्नि का मुझे ही जान
सब भूतों का जीवन भी मैं, तापस का तप मुझको मान

बीज सनातन भूतों का मैं, मेधा बुद्धिमानों की हूँ
तेजस्वी का तेज भी मैं ही, ज्योति मैं प्राणों की हूँ

आसक्ति, इच्छा रहित बल, मैं ही धर्मयुक्त हूँ काम
तीनों गुणों से उत्पन्न होते, भाव भी उपजे मुझसे जान

किन्तु साथ ही स्मरण रख तू, मैं न उनमें होता लिप्त
ज्यों आकाश सभी में रहता, फिर भी रहता सदा अलिप्त 

Monday, June 27, 2011

आत्मसंयमयोग षष्ठोऽध्यायः (अंतिम भाग)


आत्मसंयमयोग
षष्ठोऽध्यायः (अंतिम भाग)
परम सत्य को पाने हित जो, कर्म किया करता है जग में
नाश नहीं होता है उसका, इहलोक या परलोक में

योगभ्रष्ट हुआ वह साधक, उत्तम लोकों को ही पाता
पुण्यात्मा के घर जन्मता, पुनः धरा पर जब भी आता

वैरागी भी पुनः जन्म ले, ज्ञानी माता-पिता को पाता
पूर्व जन्म के योग का फल वह, दुर्लभ जन्म को लेकर पाता

अनायास ही योग साधता, संस्कारी बालक वह होता
पुनः परम हित करे साधना, पहले से भी उन्नत होता

प्रयत्नशील साधक वह अर्जुन, दृढ़ होकर साधना करता
जन्मों के संस्कार के द्वारा, परम प्रभु को वह पा जाता

योगी श्रेष्ठ तपस्वी से है, शास्त्री है उससे कमतर
जो सकाम कर्म करते हैं, योगी उनसे भी बढ़कर

जो नर सदा आत्मा में रह, अविरत भजता है मुझको
परम श्रेष्ठ मेरी दृष्टि में, सदा प्रेम करता मैं उसको 

Friday, June 24, 2011

भगवद्गीता का भावानुवाद (षष्ठोऽध्यायः)


आत्मसंयमयोग
षष्ठोऽध्यायः (शेष भाग )

मन के द्वारा तजे कामना, इन्द्रियों का निग्रह करता
क्रम-क्रम से अभ्यास के द्वारा, सिवा परम उसे कुछ न रुचता

जहाँ-जहाँ यह मन जाता है, जिस-जिस विषय से यह बंधता
वहाँ-वहाँ से लौटा लाता, योगी पुनः प्रभु में लगाता

भली प्रकार शांत है जो मन, पाप रहित, क्रिया शून्य है
एक हुआ ब्रह्म के सँग जो, आनन्दित वह योगी धन्य है

पापरहित वह योगी ऐसा, आत्मा को परम में लगाता
सुख का अक्षय कोष पा गया, सदा परम के सँग ही रहता

सर्वव्यापी अनंत चेतना, जिसमें योगी स्थित रहता
निज आत्मा में हर एक को, सबमें निज स्वरूप देखता

मैं व्यापक हूँ सब भूतों में, सब प्राणी मुझमें ही रहते
जो ऐसा जानता योगी, मैं उसको वह मुझको देखे

सबके भीतर आत्मरूप से, तत्व एक ही व्याप रहा है
जग में होकर भी मुझमें है, जो योगी ऐसा जान सका है

आत्मरूप से सबको देखे, सुख-दुःख भी सबमें सम देखे
वही परम श्रेष्ठ योगी है, जो सर्वत्र परम को देखे

हे मधुसूदन !
समभाव का योग है सुंदर, लेकिन मेरा मन चंचल है
कैसे मन को सदा टिकाऊँ, टिकता नहीं यह पल भर है

मन बड़ा बलवान है केशव, इसे रोकना दुस्तर भारी
वायु रोकना जैसे न संभव, मन को कैसे रोकूँ मुरारी

केशव बोले माना अर्जुन, मन का ऐसा ही स्वभाव है
वश में होता है मुश्किल से, मन का ऐसा ही प्रभाव है  

वैराग्य, अभ्यास से लेकिन, वश में इसको कर सकता 
वैरागी को योग प्राप्त है, जो सदा अभ्यास है करता

जिसकी श्रद्धा है योग में, किन्तु न संयम रख पाता है
अंतकाल में भटक गया जो, कैसी वह गति पाता है

क्या वह परम को न पाकर, आश्रय रहित नहीं हो जाता
नष्ट हुए बादल सा वह भी, नष्ट व्यर्थ नहीं हो जाता

हे केशव यह संशय मेरा, आप ही इसका छेदन कर दें
और न कोई कह पायेगा, आप ही भ्रम का भेदन कर दें 

Wednesday, June 22, 2011

आत्मसंयमयोग (षष्ठोऽध्यायः)



आत्मसंयमयोग

षष्ठोऽध्यायः

 तज कर्मों को अग्नि त्यागे, मानो नहीं उसे सन्यासी
कर्म करे जो फल को त्यागे, योगी वही सच्चा सन्यासी

उसको ही तू योग जान ले, जो सन्यास कहा जाता
संकल्पों के त्याग के बिना, कोई न योगी हो सकता

योग में जो दृढ़ होना चाहे, निष्कामता को अपनाये
योगारूढ़, संकल्प रहित वह, सहज सर्व कल्याण को पाए

जब न कोई शेष कामना, न कर्मों में है आसक्ति
सर्व संकल्प रहित हुआ नर, योग में उसकी अनुरक्ति

स्वयं अपना उद्धार करे जो, अधोगति में न डाले  
निज शत्रु बन सकता मानव, चाहे स्वयं को मित्र बना ले

जीवात्मा वही मित्र है, जिसने मन इन्द्रियों को जीता
जो न ऐसा कर पाए, वह खुद से ही शत्रुता करता

सुख-दुःख, मान-अपमान में सम जो, सर्दी-गर्मी जिसे न छूती
स्वाधीन आत्मा है जिसकी, उसके भीतर भगवद प्रीति

तृप्त ज्ञान-विज्ञान से जो नर, निर्विकार, इन्द्रियजीत
मिट्टी, सोना पत्त्थर सम हैं, उस योगी में जगी है प्रीत

सुहृद, बैरी, मित्र, द्वेष्य में, उदासीन, मध्यस्थ, बन्धु में
धर्मात्मा, पापी में भी जो, सम रहता है, सदा योग में

तन-मन जिसके हुए अधीन, आशाहीन, अपरिग्रही
एकांत में रहे अकेला, परमात्मा में रहे सदा ही

भूमि स्वच्छ हो कुशा बिछाए, मृगछाला फिर वस्त्र रखे
न ऊँचा न नीचा आसन, योग का फिर अभ्यास करे

तन स्थिर अचल हो बैठे, अग्र भाग नाक का देखे
ब्रह्म में विचरण करता योगी, शांतमना मुझे ध्याये

परमशांति को पा लेता वह, जो इस भांति ध्यान लगाता
मध्यम मार्ग को जो अपनाये, सहज मुझे वह पा जाता

 न अतिभोजी न भूखा रहकर, न अतिनिद्रा न नींद त्याग कर
यथायोग्य विहार करे जो, योग सिद्ध करता है वह नर 

Monday, June 20, 2011

भगवद्गीताका भावानुवाद, पंचमोऽध्यायः


पंचमोऽध्यायः
कर्मसन्यासयोग (शेष भाग)

नव द्वारों वाले इस घर में, ज्ञानीजन है सुख से रहता
न करता न ही करवाता, मन से सब कर्मों को तजता

रचता नहीं संयोग ईश्वर, कर्मों व कर्मों के फलों का
निज स्वभाव ही करा रहा है, वह न रचे कर्तापन को

ग्रहण करे न पाप-पुण्य को, ईश्वर सबसे रहे अलिप्त
ज्ञान ढका है अज्ञान से, मानव होते जिससे मोहित

तत्वज्ञान से नष्ट हो गया, जिसका वह घोर अज्ञान
सूर्य समान चमकता ईश्वर, उसके अंतर में यह मान

जिसका मन, बुद्धि है अर्पित, एकीभाव से उसमें स्थित
परमगति को पा लेता वह, हो जाता है पाप रहित

ऐसा ज्ञानी भेद करे न, ब्राह्मण, गज, गौ, चांडाल, श्वान में
समदर्शी है सदा विनयी वह, बढ़ा हुआ है जो ज्ञान में

समभाव में टिका हुआ जो, जीत लिया उसने संसार
सच्चिदानंद घन परमात्मा में, स्थित सम और निर्विकार

प्रिय पाकर जो हो न हर्षित, न उद्वगिन हो पाकर अप्रिय
स्थिर बुद्धि, संशय रहित वह, ब्रह्म वेत्ता परम को प्रिय

बाहर से टूटी आसक्ति, आत्मा के आनंद में डूबा
परमात्मा के ध्यानयोग में, अक्षय परमानंद को पाता

दुःख के हेतु भोग हैं सारे, हैं अनित्य जो लगें प्रिय
बुद्धिमान जो, दूर ही रहता, नहीं हैं उसके हित रम्य

देह नाश से पहले जो नर, काम-क्रोध पर विजय पा सके
वही पुरुष कहलाता योगी, केवल वही सुखी हो सके  

आत्मा में ही सुख पाता जो, आत्मा में रमण करता है
परमात्मा से एक हुआ जो, शांत ब्रह्म को पा लेता है

पाप नष्ट हुए हैं जिसके, संशय ज्ञान से मिट गए सारे
सर्व हितैषी, परम में स्थित, शांत ब्रह्म नित उसे पुकारे

काम-क्रोध से रहित हुआ, मन वश में, परम को पाया
ऐसा ज्ञानी चहुँ ओर से, शांत ब्रह्म में ही समाया

विषय भोग तज ध्यान निमग्न, इच्छा, भय क्रोध को त्यागे
प्राण-अपान को सम करके, आज्ञा चक्र में ध्यान टिकाये

मोक्ष की इच्छा प्रबल है जिसमें, मुक्त हुआ ही उसको जानो
मन, बुद्धि, इन्द्रियों को जीते, सदा परम में स्थित मानो  

ईश्वरों का भी जो ईश्वर है, सारे यज्ञों का जो भोक्ता
जन-जन का सुहृद है वह, ज्ञानी ऐसा ही मानता


Friday, June 17, 2011

भगवद्गीताका भावानुवाद, पंचमोऽध्यायः




कर्मसन्यासयोग

कर्मों का सन्यास श्रेष्ठ है, या हे केशव ! कर्म योग ही
दोनों में से जो उचित हो, मेरे हित तुम कहो उसे ही

दोनों हैं कल्याण के हेतु, कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से
किन्तु सुगम है कर्मयोग ही, सहज, सरल है साधन में

राग रहित कर्मयोगी जो, नहीं किसी का अहित चाहता
नहीं लिया सन्यास हो उसने, सन्यासी मैं उसे मानता

मूढ़ भेद करते दोनों में, दोनों का फल एक ही जान
ज्ञानी जन कोई भेद न करते, दोनों का फल ईश्वर मान

जो एकत्व देखता उनमें, वही यथार्थ देखने वाला
ज्ञानयोग व कर्मयोग भी, परम धाम देने वाला

ज्ञान योग का ले आश्रय, कर्तापन का त्याग है दुर्लभ
ईश मनन कर उसमें टिकना, कर्मयोगी को सदा सुलभ

मन जिसका वश में है अपने, इन्द्रियजीत, विशुद्ध हुआ  
सबमें आत्म रूप ही देखे, कर्मों से नहीं रहे बंधा

जाना जिसने तत्व ज्ञान को, ज्ञान योगी ऐसा जाने
कुछ न कर्ता मैं जग में, इन्द्रियों को ही कर्ता माने

कर्ण सुन रहे, नयन देखते, गंध नासिका ग्रहण कर रही
इन्द्रियां ही विषयों में वरतें, स्पर्श अनुभव त्वचा ले रही

खाता-पीता, आता-जाता, लेता श्वास और तजता
मौन हुआ वह यही विचारे, इन्द्रियाँ ही कर्ता धर्ता

जो कर अर्पण कर्म प्रभु में, तज आसक्ति कर्म करे
जल में कमल के पत्ते नाईं, सदा पाप से दूर रहे

योगी जन तजें आसक्ति, अन्तःकरण की शुद्धि चाहें
देह से कर्मों को करते, किन्तु न उनका फल चाहें

कर्मों के फल त्यागे जिसने, वही परम शांति को पाए
कामना युक्त कर्म जो करता, उर उसका अशांत हो जाये



Wednesday, June 15, 2011

भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय


चतुर्थ अध्याय (अंतिम भाग)
ज्ञानकर्मसन्यासयोग 


यज्ञ से प्राप्त हुए अमृत का, कर अनुभव परमसुख पाते
जो न करते कोई साधना, दोनों लोकों में दुःख पाते

न जाने ऐसे कितने ही, यज्ञ कहे गए हैं वेदों में
मन, इन्द्रियों, तन से होते, तत्व से तू जान उन्हें

द्रव्यों से जो यज्ञ हो सम्पन्न, उनसे ज्ञान यज्ञ उत्तम है
सारे कर्मों का समापन, हो जाता है ज्ञान यज्ञ में

जो उस ज्ञान को पाना चाहे, ज्ञानीजन के निकट चला जा 
भली भांति दंडवत करके, कपट रहित सेवा से पा

वे परम में रहने वाले, ज्ञानीजन हैं अति दयालु
तत्वज्ञान की बात कहेंगे, रख श्रद्धा, वे हैं कृपालु

फिर न कभी तू मोहित होगा, तत्वज्ञान उत्तम ज्ञानों में 
पहले स्वयं में जग देखेगा, फिर दर्शन होंगे मुझ में

पापी से भी हो जो पापी, ज्ञान की  नौका से तर जाये
जैसे अग्नि भस्मित करती, ज्ञानाग्नि कर्मों को जलाये

ज्ञान से बढ़कर कुछ न पावन, उसी ज्ञान को तू पायेगा
कर्मयोग से शुद्ध हुआ जो, उस मन में वह प्रकटायेगा

श्रद्धावान, जितेन्द्रिय साधक, सहज ज्ञान वह पा जाता
परम ज्ञान को पाकर तत्क्षण, परम शांति को पा जाता

जो संशय से ग्रस्त सदा है, अविवेकी, अश्रद्धालु भी
न लोक न परलोक ही, उसके लिये कभी सुखदायी

जो समस्त निज कर्मों को, प्रभु अर्पण कर देता है
संशय जिसके नष्ट हुए, जिसे विवेक का आश्रय है

जिसका अंतर वश में उसके, कर्म नहीं उसको बांधते
हे अर्जुन ! नाश कर तू भी, इस संशय का ज्ञान खड्ग से

समता को प्राप्त कर तू भी, कर्मयोग में हो स्थित
युद्ध हेतु फिर हो तत्पर, कर इसको भी परम समर्पित   

   

  




Monday, June 13, 2011

भगवदगीता का भावानुवाद


चतुर्थ अध्याय (शेष भाग)
ज्ञानकर्मसन्यासयोग

कर्म किसे कहते हैं अर्जुन, और अकर्म का क्या स्वरूप है
जानने योग्य है विकर्म भी, कर्म, अकर्म का विषय गहन है

कर्म में जो अकर्म देखता, और अकर्म में देखे कर्म
वही मुक्त हुआ बन्धन से, बुद्धिमान जानता यह धर्म

बिना कामना, संकल्प के, शास्त्र सम्मत कर्म जो करता
ज्ञानाग्नि में भस्म हुये सब, कर्मी वह ज्ञानी कहलाता

न आसक्ति कर्मों में ही, न ही उनके फलों में रखता
जगत का न लेकर आश्रय, परमात्मा में तृप्त जो रहता

सब कुछ करते हुए भी वह नर, कुछ भी नहीं यहाँ करता
इन्द्रियजीत वह तज आशा को, कभी न बंधन में फंसता

जो संतुष्ट है सहज प्राप्त में, ईर्ष्या से जो दूर हो गया
द्वन्द्वातीत कर्मयोगी वह, सब करके भी मुक्त हो गया

निर्मम, निरासक्त ,विदेही, सदा चित्त जिसका है प्रभु में
खो जाते कर्म सब उसके, यज्ञ हेतु प्रेम है जिसमें  

जिस यज्ञ में हवि ब्रह्म है, ब्रह्म स्वरूप है कर्ता भी
ब्रह्मरूप अग्नि यज्ञ की, ब्रह्म ही है उसका फल भी

कुछ देवों का पूजन करते, कुछ आत्मा को पूजते  
परम आत्मा से अभेद हो, भीतर यज्ञ किया करते

संयम की अग्नि में जलाते, कुछ इन्द्रियों के विषयों को
और अन्य इन्द्रियों में ही, करते अर्पित सब विषयों को

कुछ आत्मा में अर्पित करते, प्राणों की समस्त क्रिया को
शांत हुए वे बुद्धिमान जन, सदा मुक्त रखते हैं मन को

यज्ञ करें कुछ जन द्रव्य से, योग करें कुछ तप करते
कोई अहिंसा व्रत लेते हैं, कुछ स्वाध्याय किया करते

प्राणायाम साधते योगी, प्राणों का हवन करते
ये सब साधक यज्ञ जानते, पापों को भस्म करते

Saturday, June 11, 2011

भगवद्गीता का भावानुवाद


चतुर्थ अध्याय
(ज्ञानकर्मसन्यासयोग)

कल्प आदि में दिया सूर्य को, यह अविनाशी ज्ञान, योग का
सूर्य से पहुँचा पुत्र मनु तक, मनु से इक्ष्वाकु तक पहुँचा

परंपरा से चला योग यह, कुछ पीढ़ी तक रहा जागृत
लुप्त हो गया फिर पृथ्वी से, आज पुनः कर रहा अनावृत

तू है मेरा भक्त व सखा, अति प्रिय, मुझे है प्यारा
वही पुरातन योग कह रहा, अति उत्तम रहस्य यह न्यारा

अर्जुन ने झट प्रश्न किया, केशव ! तुम तो अब जन्मे हो
जन्म सूर्य का अति पुराना, कैसे कहूँ, तुम सत्य हो

तेरे व मेरे तो अब तक, जन्म हो चुके हैं अनंत
मै जानता, तू न जाने, इसीलिए तू है संतप्त

मै अजन्मा, अविनाशी हूँ, ईश्वर हूँ इस जग का
ले आश्रय योगमाया का, वेश धरा करता नर का

जब-जब धर्म की होती हानि, बढ़ता जाता है अधर्म
तब-तब मैं प्रकट होता हूँ, बन मानव निभाता धर्म

सज्जनों की बढ़ती हो जग में, दुर्जन न फल-फूलने पाएँ
युग-युग में आता हूँ जिससे, धर्म पताका  लहराए

मेरे जन्म-मरण दिव्य हैं, जो इस तत्व को जान सके
वह जीते जी मुक्त हो गया, वह नर ही मुझको पा सके

राग, भय व क्रोध मिटाकर, भक्त हुए मेरे कितने
प्रेमपूर्वक भजकर मुझको, ज्ञानी जन पा सके मुझे

जो मुझको जैसे भजता है, मै भी उसको वैसे चाहूँ
सभी अनुसरण करते मेरा, मैं ही उनको नाच नचाऊँ

जो कर्मों के फल में उत्सुक, वे देवों का पूजन करते
देव शीघ्र ही फल दे देते, जो न भक्ति, ज्ञान चाहते

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, ये चार वर्ण मैंने ही बनाये
इतने पर भी जान अकर्ता, सृष्टिक्रम मैंने ही चलाए

कर्मों का फल नहीं चाहता, कर्मों से होता नहीं लिप्त
जो तत्व से जाने मुझको, वह भी रहता सदा अलिप्त