Tuesday, May 27, 2014

सगर पुत्रों द्वारा सारी पृथ्वी का भेदन तथा देवताओं का ब्रह्माजी को यह सब समाचार बताना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकोचत्वारिंशः सर्गः

इंद्र के द्वारा राजा सगर के यज्ञ सम्बंधी अश्व का अपहरण, सगर पुत्रों द्वारा सारी पृथ्वी का भेदन तथा देवताओं का ब्रह्माजी को यह सब समाचार बताना

हर्षित हए राम यह सुनकर, कहा मुनि से कथा अंत पर
कहें इसे विस्तार से मुझको, हो कल्याण आपका मुनिवर

विश्वामित्र को हुआ कौतुहल, वे भी कहना यही चाहते
सुनो यज्ञ का विवरण सारा, कहा उन्होंने हँसते-हँसते

शंकर जी के श्वसुर हिमवान्, विंध्याचल तक हैं जाते
विंध्याचल हिमवान तक जाकर, एक-दूसरे को देखते

इन दोनों के मध्य में स्थित, आर्यावर्त की पुण्य भूमि में
यज्ञ का अनुष्ठान हुआ था, उत्तम उस पावन अंचल में

सुनो ककुस्त्थ नन्दन हे तात ! राजा सगर की सुन आज्ञा
तब अंशुमान ने भार उठाया, यज्ञ के अश्व की रक्षा का

पर्व का दिन था तभी इंद्र ने, राक्षस का सा रूप बनाया
राजा सगर के उस घोड़े को, उसी भेष में चुरा लिया

अश्व कोई लिए जाता है, देख कहा ऋत्विजों ने तत्क्ष्ण
चोर पकड़ कर लायें वापस, अन्यथा यज्ञ में होगा विघ्न

बिना किसी विघ्न-बाधा के, यज्ञ पूर्ण हो तभी कुशल है
वरना होगा महा अमंगल, यज्ञ पूर्णता में मंगल है

साठ हजार वीर पुत्रों से, राजा सगर ने वचन यह कहा
यज्ञ हो रहा महात्माओं से, पावन अंतःकरण है जिनका

राक्षस की यहाँ पहुंच हो सके, ऐसा नजर नहीं आ रहा  
जाकर खोज करो घोड़े की, हो पुत्रों ! कल्याण तुम्हारा

सागर से जो घिरी हुई है, छान डालो सारी पृथ्वी को
चप्पा-चप्पा देखो इसका, बाँट योजन में इस भूमि को

जब तक पता चले न अश्व का, रहो खोदते इस धरती को
एक ही लक्ष्य सम्मुख रखो, ढूँढ़ निकालो उस चोर को

यज्ञ की दीक्षा ली है मैंने, स्वयं नहीं जा सकता हूँ अब
अश्व का दर्शन न हो जब तक, यहीं रहूँगा अंशुमान संग

पिता के आदेश से बंध कर, राजकुमार विचरते भू पर
हर्षित होकर अश्व ढूंढते, किन्तु न पाया उसे कहीं पर

किया बंटवारा लगे खोदने, एक-एक योजन भूमि वे  
 निज भुजाओं के वज्र स्पर्श से, महाबली पुत्र सगर के

वज्र तुल्य शूलों से बिंधकर, दारुण हलों द्वारा विदीर्ण हो
वसुधा आर्तनाद करती थी, दुस्सह स्पर्श से अति आकुल हो

राजकुमारों द्वारा अगनित, जीवों का संहार हुआ था
  नागों, असुरों, राक्षसों का, आर्तनाद भी गूँज रहा था

साठ हजार योजन की भूमि, खोदी थी राजपुत्रों ने
रसातल में चले जा रहे, मानो अनुसन्धान करते वे

इस प्रकार घूमते थे वे, जम्बू द्वीप की इस भूमि पर
युक्त पर्वतों से जो थी, इधर-उधर लगाते चक्कर

गन्धर्वों, असुरों, नागों संग, सभी देवता तब घबरा कर
ब्रह्मा जी के पास गये तब, छाया था विषाद चेहरों पर

भय से व्याकुल हो बोले वे, खोद रहे हैं भू सगर पुत्र
कई महात्मा मारे जाते, जलचारी जीवों के संग-संग

‘विघ्न डालने वाला है यह’, ऐसा कहकर हिंसा करते
‘अश्व यज्ञ का चुरा लिया है’, सभी प्राणियों को यह कहते


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Thursday, May 22, 2014

राजा सगर के पुत्रों की उत्पत्ति तथा यज्ञ की तैयारी

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

अष्टात्रिंशः सर्गः
राजा सगर के पुत्रों की उत्पत्ति तथा यज्ञ की तैयारी

कथा कही यह मधुर स्वरों में, फिर दूजा प्रसंग सुनाया
विश्वामित्र ने राम चन्द्र को, पुरखों का इतिहास बताया

सगर अयोध्या के राजा थे, धर्म मार्ग पर चलने वाले
पुत्र नहीं था कोई उनको, मन में यही कामना पाले

विदर्भकुमारी केशिनी जिनकी, सत्यवादिनी बड़ी रानी थी
छोटी सुमति बहन गरुड़ की, अरिष्टनेमि कश्यप पुत्री थी

दोनों के संग की तपस्या, राजा सगर ने सौ वर्ष तक
पर्वत राज हिमालय के, भृगुप्रस्रवण नामक शिखर पर

तप द्वारा संतुष्ट हुए जब, श्रेष्ठ महर्षि भृगु पधारे
पुत्र अनेकों प्राप्त करोगे, सुंदर ये वचन उच्चारे

एक पुत्र एक को होगा, साठ हजार पुत्र दूजी को
वंश परंपरा बढ़ेगी जिससे, धारोगे अनुपम कीर्ति को

पूछा तब दोनों ने उनसे, किसको पुत्र एक ही होगा
बहुत से पुत्रों की जननी का, सौभाग्य किसे मिलेगा

उन दोनों की बात सुनी जब, भृगु ने निर्णय छोड़ा उन पर
कौन चाहती पुत्र एक ही, किसे चाहिए दूजा वर

केशिनी ने एक सुत माँगा, सुमति चाहती पुत्र अनेकों
राजा ने झुकाया मस्तक, चले संग उनके नगर को

असमंज को जन्म दिया तब, बड़ी रानी केशिनी ने
तूम्बी के आकार का गर्भ, उत्पन्न किया सुमति ने

उसे फोड़ बालक उपजे तब, साठ हजार जो थे संख्या में
पालन किया धाइयों ने तब, घी से भरे हुए मटकों में  

दीर्घकाल के बाद वे बालक, प्राप्त हुए युवावस्था को
बड़ा पुत्र असमंज दुष्ट था, डुबाता था नन्हे बच्चों को

सरयू के निकट ले जाकर, जल में उन्हें छोड़ देता
हँसता जब वे डूबने लगते, सत्पुरुषों को दुःख देता

बाहर किया पिता ने उसको, नगर से अपने होकर क्रोधित
अंशुमान था पुत्र उसी का, मृदुभाषी व सदा समर्पित

‘यज्ञ करूं मैं’, सगर ने सोचा, कुछ काल जब बीत गया
लगे यज्ञ की तैयारी में, उपाध्यायों को बुला लिया


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.






Friday, May 9, 2014

गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तत्रिंशः सर्गः

गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग 

हे निष्पाप राम ! सुनो फिर, गंगा ने वह गर्भ निकाला
प्रकाशमान उस गर्भ को, उचित स्थाप पर रख डाला

जाम्बूनद स्वर्ण जैसा वह, कान्तिमान दिखाई देता
स्वर्णमयी हुई भूमि वहाँ की, अनुपम प्रभा एक बिखराता  

आस-पास की सभी वस्तुएं, सुवर्ण समान प्रकाशित हुईं
रजत समान स्थान हुआ वह, अद्भुत ज्योति वहाँ फैली

दूरस्थ जो थीं वस्तुएँ, ताम्बे व लोहे में बदलीं
उस तेजस्वी गर्भ के मल से, बना रांगा व सीसा भी  

उस तेज की तीक्ष्णता से, धातुओं का निर्माण हुआ
पृथ्वी पर पड़कर वह तेज, वृद्धि को था प्राप्त हुआ

हुआ सुवर्ण श्वेत पर्वत वह, सारा वन भी जगमग करता
उसी समय से नाम सुवर्ण का, अग्नि सम जातरूप हुआ

तृण, वृक्ष, लता व गुल्म, सुवर्ण धातु के सभी हुए
इंद्र, मरुद्गण सहित देव सब, कुमार जन्म पर थे आये

छह कृत्तिकाओं को बुलवाया, बालक का पोषण करने को
शर्त रखी उत्तम उन सबने, “यह शिशु हम सबका पुत्र हो”

कार्तिकेय कहलायेगा यह, वचन दिया देवों ने उनको
निश्चित जब विश्वास हुआ, दूध प्रदान किया बालक को

देवों का जब वचन सुना यह, शिव-पार्वती से स्कन्दित
गंगा द्वारा प्रकट हुआ, अग्नि सम जो था प्रकाशित

उस बालक को कृत्तिकाओं ने, बड़े प्रेम से नहलाया
स्कन्द नाम भी मिला उन्हें, छह मुख से स्तनपान किया

एक ही दिन में हुआ बलशाली, दैत्यों पर विजय पायी
सेनापति बने देवों के, कीर्ति पताका फहराई

गंग का चरित्र बतलाया, कार्तिकेय का जन्म प्रसंग
धन्य हुआ जो सुनता इसको, पाता है वह लोक स्कन्द


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतीसवां सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, May 7, 2014

गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तत्रिंशः सर्गः

गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग

महादेव जब रत थे तप में, देव गये ब्रह्मा के पास
हो सेनापति कौन देवों का, लेकर अंतर में यह आस

अग्नि सहित इंद्र आदि ने, ब्रह्मा को प्रणाम किया
देवों को सुख देने वाले, राम ! सुनो आगे की कथा

पूर्वकाल में जिन शंकर ने, सेनापति प्रदान किया था
उमा सहित तप में रत हैं वे, आप हैं विधि-वधान के ज्ञाता

जो कर्त्तव्य लोकहित में हो, उसे पूर्ण करेंगे आप
परम आश्रय आप हमारे, देवों की सुनेंगे बात

मधुर वचन बोले तब ब्रह्मा, पितामह हैं जो त्रिलोक के
दी सांत्वना देवों को तब, शाप दिया है तुम्हें उमा ने

सत्य सिद्ध होगा वह शाप, तुम सन्तान नहीं पा सकते
ये उमा की बड़ी बहन हैं, आकाश गंगा इन्हें कहते

शंकर के उस तेज को अग्नि, इनके गर्भ में करें स्थापित
एक पुत्र तब होगा उत्पन्न, सेनापति बनेगा निश्चित

गिरिराज की ज्येष्ठ पुत्री हैं, पुत्र समान ही होगा वह
कोई संशय नहीं हैं इसमें,  प्रिय लगेगा उमा को यह

कृतकृत्य हुए सब देव, ब्रह्मा जी का वचन सुना जब
किया प्रणाम सभी देवों ने, और भक्ति से उनका पूजन

विविध धातुओं से अलंकृत, उत्तम पर्वत है कैलाश
वहीं गये सब देव, अग्नि को, दिया परम उत्तम यह काज

देव हुताशन ! देव कार्य यह, सिद्ध करें आप इसको
गंगा जी में करें स्थापित, रूद्र के उस महातेज को

हामी भरकर तब देवों से, अग्निदेव बोले गंगा से
देवी, धारण करें गर्भ यह, देवों का हित है इसमें

दिव्य रूप धरा गंगा ने, अग्निदेव की बात सुनी जब
रूद्र तेज को वहाँ बिखेरा, देख रूप-वैभव यह लखकर

सब ओर से गंगा जी को, अभिषिक्त किया रूद्र तेज से
सारे स्रोत पूर्ण हुए तब, गंगा जी के, उस तेज से

हूँ असमर्थ इसे धरने को, तब गंगा ने कहा अग्नि से
इसकी आंच से जलती हूँ मैं, व्यथित हुई चेतना इससे

हविष्य को जो भोग लगाते, अग्निदेव ने कहा तब उनसे
स्थापित करें इस गर्भ को, हिमालय के पार्श्व भाग में