Wednesday, March 14, 2018

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्
त्रिसप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना

पिता हुए परलोकवासी सुन, वनवास भाई का सुनकर
भरत अति संतप्त हो उठे, व्यक्त किया दुःख वचन यह कहकर

हाय ! मुझे मार ही डाला, बिछड़ा पिता से सदा के लिए
विलग किया गया मैं अभागा, पिता समान बड़े भ्राता से

क्या करना है लेकर यह राज्य, डूब रहा हूँ मैं शोक में
राजा मृतक, भाई वनवासी, दुःख पर दुःख दिया है तूने

घावों पर नमक सा छिड़का, कुल के विनाश हेतु तू आई
ज्यों अंगारा हो दहकता, लेकिन पिता को समझ न आई

कुल कलंकिनी, अरी पापिनी, तूने उन्हें मृत्यु दे डाली
मोह वश छीना सुख कुल का, पिता थे मेरे महा यशस्वी

क्यों विनाश किया है उनका, क्यों बड़े भाई को वन भेजा
 माँ कौसल्या, सुमित्रा का अब, कठिन है जीवित भी रहना

धर्मात्मा हैं राम अति ही, सदाचरण की रीत जानते
जैसा माँ से करना उचित, व्यवहार वह तुझसे भी करते

कौसल्या माँ दूरदर्शिनी, बहन समान ही तुझे मानतीं
उनके पुत्र को भेज तू वन में, फिर भी शोक नहीं जानती 

श्रीराम नहीं दोष देखते,  महायशस्वी शूरवीर हैं
वल्कल वस्त्र उन्हें पहनाकर, कैसा लाभ भला तू देखे  

तू लोभिन है इसीलिए, रामप्रति मेरा भाव न देखे
यह महा अनर्थ कर डाला, राज्य के लिए  तभी तो तूने

कैसे रक्षा कर सकता हूँ, बिन राम-लक्ष्मण के अकेला
पिता भी लें आश्रय उन्हीं का, पर्वत वन का जैसे लेता

किस बल से धारण कर सकता, महाधुरंधर धरता जिसको 
बैलों से जो ढोया जाये, बछड़ा कैसे ढोए उसको

यदि उपाय और बुद्धि से, शक्ति हो मुझमें भरण-पोषण की
राज्य पुत्र के लिए चाहती, इच्छा पूर्ण न होगी तेरी