Monday, January 30, 2012

बोधोपल्ब्धि


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


बोधोपल्ब्धि


आत्मानंद अमृत प्रवाह सा, वाणी से नहीं कह सकते
परब्रह्म सागर का वैभव, मन से मनन न कर सकते

कहाँ गया वह जग देखो, कौन ले गया सँग अपने
है कैसा अचरज भारी, कहाँ खो गए सब सपने

यह अखंड महासागर है, आनंद अमृत मधुर व पूर्ण
किसको पकडें किसको त्यागें, साधारण या हो विलक्षण 


नहीं देखता, नहीं कुछ सुनता, न अन्य कुछ ही मैं जानूँ
आनन्दस्वरूप आत्मा में मैं, स्वयं को स्थित विलक्षण मानूँ

सदगुरु की कृपा से पाया, यह अखंड, अक्षय, आत्मपद
जग का ताप हरा संत ने, है उनको  बारम्बार नमन

धन्य हुआ मैं और कृतार्थ, जग बंधन से मुक्त हुआ हूँ
नित्य आनंद स्वरूप को जाना, सर्वत्र परिपूर्ण हुआ हूँ

मैं असंग हूँ, अशरीर हूँ, अक्षय और अलिंग शांत हूँ
अक्रिय, पुरातन और अनंत, अविकारी और अतांत हूँ

कर्ता नहीं भोक्ता भी नहीं, शुद्ध बोधस्वरूप एक हूँ
निस्सीम, निसंग सदा मैं, नित्य ही कल्याण रूप हूँ

द्रष्टा, वक्ता, श्रोता भी न, इनसे सदा भिन्न हूँ मैं
नित्य, निरंतर, एक रूप हो, पूर्ण अद्वितीय ब्रह्म हूँ मैं

मैं न यह हूँ, न ही वह हूँ, दोनों का प्रकाशक हूँ मैं
स्थूल. सूक्ष्म जगत मुझसे हैं, अनुपमेय ब्रह्म हूँ मैं

बाहर, भीतर शून्य रूप सा, हूँ अनादि, आनंद स्वरूप
तू, मैं, यह, वह, दूर हैं मुझसे, मैं अनंत, रस स्वरूप


Wednesday, January 25, 2012

आत्मानुभव का उपदेश


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आत्मानुभव का उपदेश

बंधन, मोक्ष, तृप्ति और चिंता, स्वयं ही जाने जाते हैं
स्वास्थ्य लाभ या भूख लगी हो, दूजे अनुमान लगाते हैं

श्रुति सम गुरु भी बोध कराते, ब्रह्म का केवल शब्द ज्ञान से
स्वयं को ही अनुभव करना है, प्रभु कृपा से दिव्य भान से

निज अनुभव जब हो जाता है, सिद्ध हुआ साधक हो हर्षित
निर्विकल्प हुआ वह साधक, रहे आत्मा में ही स्थित

जीव और जगत सारा यह, ब्रह्म ही है कुछ और नहीं
अद्वितीय उस ब्रह्म में रहना, मोक्ष यही कुछ और नहीं

बोधोपल्ब्धि  

गुरु के शब्द सुने शिष्य ने, चित्त और इन्द्रियाँ हुईं शांत
आत्मस्वरूप में टिक जाता वह, निश्चल वृत्ति से हो स्थित

परब्रह्म में चित्त समाहित, परमानंद को पाकर हर्षित
बुद्धि खो गयी ज्ञान को पाकर, कहने लगा शिष्य हो चकित

विषयों में न रस कोई है, न यह और न वह मैं मानूँ
कैसा और कहाँ से आया, परम हर्ष यह कैसे जानूँ

जैसे ओला गल जाता है, सागर की जल राशि में
वैसे ही है लीन हुआ, मन आनंद सिंधु अंश में

Monday, January 23, 2012

नानात्व विचार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

नानात्व विचार

अनादि, अनंत, अप्रमेय, है सर्वत्र एक ही ब्रह्म
नानात्व नहीं कहीं उसमें, है अविकारी सदा ही ब्रह्म

घनीभूत सत् चित् आनंद, नित्य, अक्रिय, अद्वितीय ब्रह्म
नानात्व नहीं कहीं उसमें, है नित्य सदा ही ब्रह्म

एकरस, परिपूर्ण, अनंत, सर्व व्यापक अंतरात्मा
नानात्व नहीं कहीं उसमें, एक ही है वह परम आत्मा

न त्याज्य, न ही ग्राह्य, न किसी में स्थित ब्रह्म
जिसका कोई नहीं आधार, ऐसा एक अद्वितीय ब्रह्म

स्वतः सिद्ध, शुद्द सत्य जो, बोध स्वरूप नित्य है जो
वैभवपूर्ण, परम ब्रह्म वह, अद्वितीय एक है वो

आत्मानुभव का उपदेश   

जिनका राग नहीं वस्तु में, अंत हुआ भोग का जिसके
चित्त शांत, इन्द्रियाँ संयत, परम शांत हैं सन्यासी वे

जगो, वत्स ! अज्ञान नींद से, निज सत स्वरूप में जागो
मोह त्याग मुक्त हुए फिर, आत्मा के आनंद को पा लो

प्राप्त समाधि, फिर निश्चल हो, ज्ञान नेत्र से स्वयं को देखो
सुने हुए का अनुभव कर लो, संशय मुक्त हृदय को पा लो

अज्ञान रूप जो बंधन भारी, तज कर प्राप्त करो सुख, ज्ञान
शास्त्र, युक्ति व गुरु वाक्य सँग, अपना अनुभव है प्रमाण  

Wednesday, January 18, 2012

प्रारब्ध विचार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


प्रारब्ध विचार

आत्म चिंतन में जो रत है, जग उसको यदि भासित होता
फल भोग भी यदि वह पाए, प्रारब्ध ही वह कहलाता

जब तक सुख-दुःख अनुभव होते, प्रारब्ध तब तक माना जाता
क्रिया हुए से ही फल मिलता, कर्म बिना कोई फल न पाता

जग जाने पर स्वप्न टूटता, स्वप्न, कर्म लीन हो जाते
बोध हुआ जब निज स्वरूप का, संचित कर्म नष्ट हो जाते

सपने में जो पाप-पुण्य हों, जग कर उनका फल न मिलता
जो स्वयं को असंग जानता, लिप्त नहीं कर्मों से होता

जैसे घट में मदिरा भी हो, घटाकाश अछूता उससे
है उपाधि ऊपर ऊपर ही, नहीं आत्मा लिप्त हो उससे

कर से छूटा हुआ बाण ज्यों, लक्ष्य भेद कर ही रहता
ज्ञान पूर्व किया कर्म जो, अपना फल लाकर ही रहता

प्रारब्ध बड़ा बलवान सभी का, उसे भोगना ही पड़ता
संचित और क्रियमाण का, ज्ञानी नाश किया करता

जो सदा ब्रह्म में स्थित, प्रारब्ध उसको नहीं सताता
जाग्रत भाव में सदा रहे जो, अहं, मम से मुक्त हो जाता

न तो मिथ्या सिद्ध करे वह, न ही संग्रह में है रूचि
फिर भी यदि प्रवृत्ति में रत, निद्रा अभी टूटी ही नहीं

   





 

Sunday, January 15, 2012

जीवन्मुक्त के लक्षण (शेषभाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

जीवन्मुक्त के लक्षण (शेषभाग)

ममता नहीं देह आदि में, सहज भाव से कर्म वह करता
 उदासीनवत् जग में विचरे, जीवन्मुक्त वही कहलाता

ब्रह्म आत्मा के ऐक्य को, श्रुति प्रमाण से जिसने जाना
जग बंधन से मुक्त हुआ वह, जीवन मुक्त उसी को माना

देह ‘मैं’ ‘यह’ जगत शेष है, ऐसा भाव न जिसमें रहता
आत्म भाव में हुआ मग्न जो, जीवन मुक्त कहा जाता

जिसकी प्रज्ञा प्रखर हुई है, ब्रह्म जगत में भेद न जाने
स्वयं भी ब्रह्म से एक हुआ जो, जीवन मुक्त उसी को माने

साधु पुरुष से पा सम्मान, दुष्टों से पाकर अपमान
जिसका चित्त एक सा रहता, जीवन मुक्त उसी को जान

सागर में कोई क्षोभ न होता, जब नदियाँ उसमें आ मिलतीं
सारे विषय समाते उसमें, चित्त में समता फिर भी रहती

ब्रह्म तत्व को जिसने जाना, जग की नहीं आस्था उसको
यदि आस्था शेष किसी में, ज्ञान नहीं सधा उसको

पूर्व वासना के कारण भी, यदि माने आस्था जग में
संभव नहीं कभी होता यह, क्षीण वासना, ज्ञान करे

काम वृत्ति कुंठित हो जाती, अतिकामी की माँ के सम्मुख
ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त हुआ जो, होगा जग वासना से विमुख



Wednesday, January 11, 2012

जीवन्मुक्त के लक्षण


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

जीवन्मुक्त के लक्षण

ब्रह्माकार वृत्ति है जिसकी, बुद्धि विषय से अनासक्त है
जो मिल जाये सहज ग्रहण कर, बालवत् जो रहे मुक्त है

जग एक स्वप्न समान हुआ, जिस ज्ञानी को, वह धन्य है
शेष नहीं कामना जिसकी, पुण्य अनंत जगे हैं उसके

परब्रह्म में चित्त लीन कर, आनंद मग्न सदा जो रहता
कर्म सहज ही होते उससे, कर्ता भाव नहीं है रहता

ब्रह्म आत्मा के ऐक्य को, जिसने भीतर प्राप्त किया है
प्रज्ञावान उस ज्ञानी को ही, स्थित प्रज्ञ कहा गया है

यथावत् व्यवहार भी करता, किन्तु स्वप्नवत् जगत को माने
जो कामना रहित हुआ है, जीवन मुक्त उसी को माने

जगत वासना शांत हुई है, कलावान पर कलाहीन सा  
निर्विकार स्वरूप में रहता, चित्त युक्त है जड़ अलिप्त सा

जब तक है प्रारब्ध शेष, देह छाया सा सँग ही रहता
मैं मेरे का भाव न बचता, ज्ञानी जीवन मुक्त हो रहता

न अतीत का शोक है उसको, न भविष्य की चिंता रखता
वर्तमान में जो मिलते, सुख-दुःख को सम भाव से सहता

आत्मस्वरूप से युक्त सदा जो, ऐसे जग में समदर्शी है
इष्ट अनिष्ट में भी सम रहता, ऐसा वह अद्भुत ज्ञानी है

ब्रह्मानंद रसास्वाद में, चित्त शांत हुआ है जिसका
बाह्य आंतरिक ज्ञान न रहता, चित्त समाधिस्थ हुआ है उसका  


Sunday, January 8, 2012

आत्म ज्ञान का फल


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


आत्म ज्ञान का फल

सम्यक सिद्धि आत्म ज्ञान में, पाकर योगी हर्षित होता
नित्य आनंद रस को पाता, बाहर-भीतर एक हो रहता

वैराग्य से बोध जगेगा, बोध से उपरामता विषयों से
उपरति से आनंद प्रकटता, चित्त शान्त हो सब समयों में

यदि न मिली आत्म शांति, उपरति होना तब निष्फल है
बोध भी व्यर्थ चला जायेगा, यदि उपरति न उसका फल है

वैराग्य का क्या अर्थ है, यदि बोध जगा न भीतर
विषयों से हटना है तृप्ति, यही परम आनंद मनोहर

प्रारब्ध वश जो दुःख मिल जाये, विचलित न होता ज्ञानी
अज्ञान में कर्म किये जो, ज्ञान हुए होते सब सानी

विद्या हमें छुडाती असत् से, अविद्या प्रबल किये जाती
यदि असत् में अब भी रूचि है, विद्या फल न दे पाती

हृदय ग्रंथि अज्ञान रूप जो, नाश हुआ जिसका ज्ञानी में
मिटी कामना जग से सुख की, विषय फंसाते न मोह में

भोग्य वस्तु लख लोभ जगे न, वैराग्य तब प्रकट हुआ है
अहंकार न रहता जिसमें, बोध भी उसका प्रबल हुआ है

भीतर वृत्ति शांत हुई है, उपरति सधी है ज्ञानी में
शांत हुआ आनंद में डूबा, बंधन काटे हैं योगी ने



Thursday, January 5, 2012

दृश्य की उपेक्षा


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


दृश्य की उपेक्षा

तन केवल छाया ही है, आभास रूप से जो दिखता है
इसका अंत मृत्यु है केवल, आत्मा नहीं मरा करता है

नित्य और निर्मल स्वरूप को, जड़ शरीर से श्रेष्ठ ही मानो
पुनः न स्वयं को देह मानना, अपने को आत्मा जानो

विचारवान श्रेष्ठ मनुष्य, माया को ज्ञान से हरते
नित्य, विशुद्ध आनंद बोध में, नित्यप्रति निवास फिर करते

गले में माला रहे या गिरे, गौ इसका ध्यान नहीं रखती
प्रारब्ध से मिला है यह तन, वृत्ति योगी की इससे नहीं बंधती

सुख स्वरूप जब स्वयं को जाना, देह से किसकी चाह रखना
नित्य स्वरूप आत्मा जानी, पुनः न भव बंधन से बंधना

 

Wednesday, January 4, 2012

आत्म चिंतन का विधान


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


आत्म चिंतन का विधान

जो विकल्प उठा करते हैं, चित्त ही केवल उनका मूल
मन स्थिर हो यदि स्वयं में, मिट जाता विकल्प समूल

नित्यबोध स्वरूप तत्व है, आनंद रूप, अनुपमेय, मुक्त
है अनंत, निर्विकल्प भी, कालातीत, अक्रिय, अयुक्त

अन्तःकरण में अनुभव करते, पूर्णब्रह्म का योगीजन
कारण कार्य रहित, समरस जो, परे प्रमाण से भावातीत

अजर, अमर, आभास शून्य, वस्तुरूप जल राशि ज्यों निश्चल
नामरूप से रहित, अविकारी, नित्य, शांत, अद्वितीय ब्रह्म

स्वयं में चित्त समाहित करके, आत्मा का अनुभव करते
भव बंधन को तज यत्न से, मानव जन्म सफल करते

उपाधि रहित, अद्वितीय तत्व का, अन्तःकरण में जो स्थित  
चिंतन हो यदि आत्म तत्व का, भव बंधन से है वही मुक्त 



Monday, January 2, 2012

प्रपञ्च का बाध


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


प्रपञ्च का बाध

आत्मा में जो भी आरोपित, हर कल्पना का करे निरास
स्वयं अद्वितीय, अक्रिय पूर्ण, परब्रह्म सा करे विलास

मन जब स्थिर हुआ स्वयं में, निर्विकल्प ब्रह्म ही रहता
दृश्य, विकल्प खो जाता सब, कहने मात्र को ही रह जाता

एक ही तत्व ब्रह्म है केवल, जग मिथ्या कल्पना मात्र
निर्विकार है निराकर जो, भेद नहीं होता तब ज्ञात

द्रष्टा, दृश्य, दर्शन से शून्य, निर्विकार बस एक तत्व है
भेद नहीं जब उसमें संभव, कैसे जग का पृथक अस्तित्त्व है

प्रलयकाल का सागर हो ज्यों, कुछ भी शेष नहीं रहता
उसी एक में सब खो जाता, जगत ब्रह्म में लीन हो जाता

ज्यों प्रकाश में लीन हुआ तम, भ्रम लीन होता ज्ञान में
वह अद्वितीय, निर्विशेष तत्व, भेद सभी खो जाते उसमें

एकात्मक अद्वितीय तत्व है, भेद भला क्योंकर होता
सुख-स्वरूप सुषुप्ति में ज्यों, कोई भेद नहीं रहता

परमतत्व का बोध हुआ तो, विश्व कहीं खो जाता है
रज्जु सर्प में ज्यों खो जाती, जल मरीचिका में खो जाता

श्रुति का भी तो यही कथन है, द्वैत है केवल मिथ्या माया
एक ही अद्वैत तत्व है, भ्रम से ही जग जिसमें पाया