Monday, June 30, 2014

भगीरथ के साथ जाकर उनके पितरों का उद्धार करना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रिचत्वारिंशः सर्गः

भगीरथ की तपस्या से संतुष्ट हुए भगवान शंकर का गंगा जी को अपने सिर पर धारण करके बिंदु सरोवर में छोड़ना और उनका सात धाराओं में विभक्त हो भगीरथ के साथ जाकर उनके पितरों का उद्धार करना

विस्मित होकर देव खड़े थे, गंगा का अवतरण हो रहा
चमक रहा निर्मल आकाश, अद्भुत वह उत्तम दृश्य था

मानो सूर्य अनेक उदित थे, दिव्य प्रकाश वहाँ फैला था
लहरें उछल रही थीं जिसमें, जीवों का समूह गिरता था

वायु आदि से फेन बंट रहा, सब ओर आकाश में फैले
मानो शरद ऋतु के बादल, अथवा हंस कई उड़ते थे

कहीं पाट चौड़ा था उसका, कहीं संकरी कहीं तेज थी
नीचे आती कहीं उतरती, कहीं उठी ऊपर जाती थी

धीमे-धीमे बढ़ती जाती, समतल भूमि पर बहती थी
निज जल से टकराती, पावन अति शोभा पाती थी

भूवासी, ऋषि, गन्धर्व तब, करें आचमन गंगा जल का
शंकर के मस्तक को छूकर, आया जल बड़ा पावन था

शाप भ्रष्ट हुए जो नभ से, धरती पर प्राणी आये थे
स्नान किया गंगा जल में, अंतर में निष्पाप हुए थे

पुनः हुए संयुक्त पुण्यों से, शुभ लोकों को वे पा गये
सम्पर्क हुआ पावन जल का, जगवासी प्रसन्न हुए थे

आगे-आगे चलें भगीरथ, गंगा पीछे-पीछे आतीं
देव, ऋषि, गन्धर्व सभी संग, जन्तु से भरी जल राशि

उसी मार्ग में राजा जह्नु, यज्ञ करने हेतु बैठे थे
गंगा जी की जल धारा संग, यज्ञ मंडप बहे जाते थे

कुपित हो गये राजा तब, गर्व समझ इसको गंगा का
पी गये समस्त जल को, जग के लिए बड़ा अद्भुत था

देव, ऋषि, आदि ने मिलकर, की स्तुति राजा जह्नु की
आप पिता होंगे गंगा के, कहलाएगीं पुत्री आपकी

प्रसन्न हुए राजा यह सुनकर, अति सामर्थ्य शाली थे वे
‘जाह्नवी’ कहलायीं गंगा, प्रकट किया कर्ण छिद्रों से

पुनः बढ़ीं आगे गंगा फिर, सागर तक जाकर पहुँची  
पितरों के उद्धार के लिए, वह रसातल में भी गयीं

यत्न पूर्वक गंगा जी को, साथ लिए भगीरथ पहुंचे
पितरों को अचेत सा देखा, शाप से जो भस्म हुए थे

भस्म राशि की आप्लावित, गंगा जी के उत्तम जल ने
हो निष्पाप राजपुत्र वे, स्वर्गलोक को प्राप्त हुए थे


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.






Monday, June 23, 2014

भगवान शंकर का गंगा जी को अपने सिर पर धारण करके बिंदु सरोवर में छोड़ना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रिचत्वारिंशः सर्गः

भगीरथ की तपस्या से संतुष्ट हुए भगवान शंकर का गंगा जी को अपने सिर पर धारण करके बिंदु सरोवर में छोड़ना और उनका सात धाराओं में विभक्त हो भगीरथ के साथ जाकर उनके पितरों का उद्धार करना

श्रीराम ! जब गये ब्रह्माजी, तप में लीन हुए भगीरथ
अग्रभाग को अंगुष्ठ के, रखे हुए धरा पर केवल  

एक वर्ष तक शंकर जी की, की उपासना पूरे मन से
उमापति लोकवंदित जो, पशुपति तब प्रकट हुए

नरश्रेष्ठ, प्रसन्न हूँ तुम पर, प्रिय तुम्हारा मैं करूंगा
गिरिराज कुमारी गंगा जी को, निज मस्तक पर धारूंगा

शंकर जी की पाकर स्वीकृति, ज्येष्ठ पुत्री हिमवान की
वेग सहित अति विशाल बन, शंकर के मस्तक पर आयीं

उस पल यह विचार किया था, परम दुर्धर गंगा जी ने
पाताल में घुस जाऊंगी, प्रखर प्रवाह के संग उनको ले

जाना जब इस अहंकार को, कुपित हुए त्रिनेत्रधारी तब
गंगा को अदृश्य बनाया, निज जटाओं में उलझा कर

पावन मस्तक से रूद्र के, जो हिमालय सम विशाल था
नहीं जा सकीं धरा पर गंगा, जटा समूह गुफाओं सम था

नहीं पा सकीं मार्ग वहाँ से, वर्षों तक थीं वहीं भटकती
पुनः भगीरथ लगे तप में, कृपा मिली फिर शंकर जी की

बिंदु सरोवर में जा छोड़ा, महादेव ने गंगा जी को
बनी सात धाराएँ उनकी, ले जाती थीं शीतल जल को  

हा्लादिनी, पावनी, नलिनी, पूर्व दिशा की ओर गयीं
सुचक्षु, सीता, महानदी सिन्धु, पश्चिम को थीं प्राप्त हुईं

सप्तम धारा थी जो उनमें, गयी भगीरथ के पीछे
दिव्य रथ पर थे आरूढ़ वे, अनुसरण उनका करने

गंगा जी की वह जल राशि, कलकल नाद के साथ बही
मत्स्य, कच्छप, शिंशुमार के, झुंड गिरे, अति शोभा हुई

देव, ऋषि, गन्धर्व, सिद्ध गण, यक्ष विमानों पर आये
अश्वों, गजराजों पर चढ़कर, गंगा जी को सभी निहारें


Thursday, June 19, 2014

ब्रह्माजी का भगीरथ को अभीष्ट वर देकर गंगाजी को धारण करने के लिए भगवान शंकर को राजी करने के निमित्त प्रयत्न करने की सलाह देना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

द्विचत्वारिंशः सर्गः

अंशुमान और भगीरथ की तपस्या, ब्रह्माजी का भगीरथ को अभीष्ट वर देकर गंगाजी को धारण करने के लिए भगवान शंकर को राजी करने के निमित्त प्रयत्न करने की सलाह देना

अंशुमान बनें अब राजा प्रजाजनों की यह इच्छा थी
राजा सगर जब स्वर्ग सिधारे राम ! यही बात उचित थी

बड़े प्रतापी राजा थे वे एक महान पुत्र भी पाया
बलशाली व वीर अति नाम दिलीप रखा था जिसका

निज पुत्र को दे राज्य स्वयं को तप से सम्पन्न करने
हिमालय के रमणीय शिखर पर अंशुमान गये तप करने

बत्तीस हजार वर्ष बीते थे जब देह त्याग दी राजा ने
स्वर्गलोक को प्राप्त किया था निज तपस्या के बल से

पितामहों के वध वृतांत से थे व्यथित राजा दिलीप भी
सोच-विचार किया करते थे कर न सके निश्चय कोई भी

चिंतन में ड़ूबे रहते थे गंगा कैसे धरा पर उतरें
कैसे दूँ जलांजलि पितरों को हो उनका उद्धार भी कैसे

धर्म के पथ पर चलने वाले थे विख्यात दिलीप जगत में
पुत्र भगीरथ प्राप्त हुआ था पारंगत वह भी धर्म में

यज्ञों का किया अनुष्ठान राज्य किया सहस्त्रों वर्षों  
पितरों की चिंता से पीड़ित रोग से प्राप्त हुए मृत्यु को

पुत्र भगीरथ बने अब राजा गये दिलीप इन्द्रलोक को
थी सन्तान नहीं राजा की फिर भी गये तप करने को

सौंप दिया मंत्रियों को प्रजा की रक्षा का सब भार
गंगा कैसे धरा पर लायें गोकर्ण में करें विचार

पंचाग्नि का सेवन करते दोनों भुज उठाये ऊपर
अल्पाहार ग्रहण करते थे इन्द्रियों को वश में रखकर

एक हजार वर्ष बीते थे घोर तपस्या में वे रत थे
देवों के संग प्रकट हुए तब ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए थे

हूँ प्रसन्न तुम्हारे तप से श्रेष्ठ व्रत का पालन करते
वर मांगो कोई मुझसे अब राजा भी कृतार्थ हुए थे

हाथ जोड़कर बोले उनसे यदि आप प्रसन्न हैं मुझसे
गंगा जी का जल प्राप्त हो पुत्रों को राजा सगर के

मेरे सभी प्रपितामहों को अक्षय स्वर्गलोक मिल जाये
गंगा जी के पावन जल से भस्म राशि उनकी तर जाये

संतति के भी लिए प्रार्थना देव ! आपसे करता हूँ मैं
नष्ट न हो परम्परा कुल की यही आपसे वर मांगूं मैं

बात सुनी भगीरथ की जब मधुर वचन कहे ब्रह्मा ने
हित चाहते सदा सभी का सर्वलोक के पितामह थे

इक्ष्वाकु वंश की वृद्धि होगी पूर्ण तुम्हारे वर होंगे
शंकर जी को करो तैयार गंगा जी को धारण करने

धरा सहन नहीं कर सकती अति वेग है गंगा जी का
महादेव के सिवा न कोई जो इसको धारण कर सकता

राजा से ऐसा कहकर गंगा जी से कहा कृपा हित
इसके बाद स्वर्ग गये वे मरुद्गणों, देवों के सहित



इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बयालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Thursday, June 12, 2014

सगर की आज्ञा से अंशुमान का रसातल में जाकर घोड़े को ले आना और अपने चाचाओं के निधन का समाचार सुनाना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकचत्वारिंश सर्गः

सगर की आज्ञा से अंशुमान का रसातल में जाकर घोड़े को ले आना और अपने चाचाओं के निधन का समाचार सुनाना

बहुत हुए दिन गये पुत्रों को, ऐसा जान सगर राजा ने
अंशुमान जो तेजपूर्ण था, राम ! उससे ये वचन कहे

शूरवीर, विद्वान्, तेजस्वी, हो निज पूर्वजों के सम वर
अश्व चोर का पता लगाओ, जाकर चाचाओं के पथ पर

बलशाली, विशाल जीव भी, रहते हैं धरती के भीतर
धनुष और तलवार भी ले लो, उनसे तुम लेने को टक्कर

वंदनीय जो भी पुरुष हों, झुककर उन्हें करना प्रणाम
विघ्न डालने वाले हों जो, उन पर ही करना प्रहार

पूर्ण कराओ इस यज्ञ को, लौटो सफल मनोरथ करके
राजा सगर की मान आज्ञा, अंशुमान चल दिया अस्त्र ले

अंशुमान के चाचाओं ने, मार्ग बनाया था धरती पर
बढ़ता गया उसी पर, राम ! राजा सगर से प्रेरित होकर

महातेजस्वी उस वीर ने, देखा वहाँ एक दिग्ग्ज
दानव, देव पिशाच, राक्षस, पक्षी, नाग से था पूजित

कुशल पूछकर की परिक्रमा, अश्व चोर का परिचय पूछा
उसका प्रश्न सुना दिग्गज ने, परम बुद्धि का जो स्वामी था

अपना कार्य सिद्ध करके तुम, शीघ्र लौट आओगे वीर
हर्षित हुआ बात यह सुनकर, आगे बढ़ा असमंज कुमार

क्रमशः सभी दिग्गजों से तब, वही प्रश्न पूछा उसने
सबने वही शब्द दोहराए, वाकपटु उन मर्मशील ने

आशीर्वाद सुना जब उसने, शीघ्र गया उस स्थान पर
जहां पड़े थे उसके चाचा, बने हुए राख के ढेर

अंशुमान अति हुआ दुखित तब, रोने लगा शोक के वश हो
वहीं पास ही चरते देखा, यज्ञ संबंधी उस अश्व को

महातेजस्वी अंशुमान ने, जलांजलि देनी चाही तब
देखा आसपास जाकर, नहीं जलाशय दिखा वहाँ पर

दृष्टि को फैलाकर देखा, पक्षिराज गरुड़ को पाया
वेगवान थे जो वायु सम, थे चाचाओं के जो मामा

विनतानंदन कहा गरुड़ ने, करो शोक न, पुरुष सिंह हे !
हुआ राजकुमारों का वध, मंगल हेतु सर्व जगत के

मुनि कपिल ने दग्ध किया है, जो अत्यंत तेजवान हैं
लौकिक जल की अंजलि देना, इनके लिए नहीं उचित है

हिमवान की ज्येष्ठ पुत्री जो, गंगा जी का जल है पावन
उस जल से आप्लावित कर दो, उस जल से ही उचित तर्पण

लोकपावनी गंगा जल से, भीगेगी जब भस्मराशि ये  
स्वर्गलोक तब जा पहुंचेंगे, साठ हजार सगर पुत्र वे

घोडा लेकर अब जाओ तुम, यज्ञ पूर्ण हो पितामह का
अंशुमान सुन बात गरुड़ की, लेकर अश्व लौट आया

यज्ञ हेतु जो हुए थे दीक्षित, राजा सगर से बात कही सब
पूर्ण किया यज्ञ नियम से, सुना भयंकर समाचार जब

लौटे राजधानी को अपनी, बहुत विचार किया गंगा हित
कोई मार्ग नहीं सूझा, पहुंचे नहीं किसी निश्चय पर

तीस हजार दीर्घ वर्षों तक, राज्य किया सगर राजा ने
स्वर्गलोक तब चले गये, बिना किसी उपाय तक पहुंचे


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में एकतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.





Wednesday, June 4, 2014

सगर पुत्रों का पृथ्वी को खोदते हुए कपिलजी के पास पहुंचना और उनके रोष से जलकर भस्म होना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


चत्वारिंशः सर्गः
 सगर पुत्रों के भावी विनाश की सूचना देकर ब्रह्माजी का देवताओं को शांत करना, सगर पुत्रों का पृथ्वी को खोदते हुए कपिलजी के पास पहुंचना और उनके रोष से जलकर भस्म होना

देवताओं की बात सुनी जब, जो भयभीत और मोहित थे
ब्रह्मा जी ने कहे वचन ये, थे पीड़ित जो सगर पुत्रों से

सारी पृथ्वी है जिनकी वे, वासुदेव श्री हरि वे पावन
कपिल मुनि का रूप धरे, करते हैं वे इसको धारण

उनकी कोपाग्नि से ही, जलकर भस्म सभी होंगे
पृथ्वी का भेदन होना है, निश्चित ही विनष्ट होंगे

हर्षित हुए देव सुनकर यह, लौट गये जैसे आये थे
पृथ्वी जब खोदी जाती थी, शब्द भयंकर तब गूंजे थे

भेदन कर सारी पृथ्वी का, कर परिक्रमा भी उसकी तब
खाली हाथ लौट आये वे, सर्व धरा छान डाली जब

देव, दानव, राक्षस, पिशाच, नाग आदि बलवानों को
मार दिया सबको हमने पर, कहीं न देखा अश्व चोर को

पुत्रों का यह वचन सुना जब, कुपित हुए राजा बोले तब
जाओ, फिर से खोदो धरती, चोर पकड़ लो, आना तब

मान पिता की यह आज्ञा, पुत्र लौटे फिर साठ हजार
रोष में भरकर गये रसातल, देखा दिग्गज पर्वताकार

विरूपाक्ष नाम था उसका, धारण किये था यह भूतल
पर्वत और वनों सहित इस, धरा धरे था वह मस्तक पर

मस्तक को जब जरा हटाता, वह विश्राम के हेतु थककर
भूकम्प होता था उस क्षण, कंप जाती थी धरती हिलकर

विरूपाक्ष विशाल गजराज, रक्षा करता था पूर्व दिशा की
परिक्रमा कर बढ़ गये आगे, तब दक्षिण की ओर वे सभी

दक्षिण में भी एक था दिग्गज, महापद्म नाम था जिसका
 सगर पुत्र लख हुए थे विस्मित, पर्वत के समान ऊंचा था

कर परिक्रमा उस दिग्गज की, पश्चिम दिशा को गये वीर वे
सौमनस का किया था दर्शन, गये उसकी भी परिक्रमा करके

उत्तर दिशा में श्वेत भद्र था, हिम समान विशाल दिग्गज
कुशल पूछ उसकी भी वे सब, भूमि भेदन में गये थे जुट

रोषपूर्वक पूर्वोत्तर में, गये खोदने फिर भूमि को  
इस बार देखा वीरों ने, वासुदेव रूप कपिल मुनि को

राजा सगर के यज्ञ का घोडा, वहीं निकट विचरण करता था
राम ! उसे देख उन सबको, अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ था

यज्ञ में विघ्न इन्होंने डाला, यही समझ क्रोध में भरकर
हाथों में ले हल, पत्थर वे, दौड़े वहाँ रोष में भरकर

अरे ! खड़ा रह, है चोर तू, दुर्बुद्धे ! अब हम आ गये
राजा सगर के पुत्र हैं हम सब, क्रोध में भर ये वचन सुनाये

उनकी जब यह बात सुनी तो, रोष हुआ भगवान कपिल को
मुँह से इक हुंकार निकाला, राख किया तब उन्हें जलाकर


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.