Sunday, February 26, 2012

उपदेश का उपसंहार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

उपदेश का उपसंहार        

तत्व बोध को प्राप्त हुए, उस शिष्य को गुरु ने देखा
प्रसन्न हुए चित्त से बोले, मुखड़े पर थी स्मित रेखा

नेत्रवान को रूप ही दिखता, जहाँ नजर वह ले जाये
ब्रह्म ज्ञानी को इस जग में, ब्रह्म ही ब्रह्म नजर आये

ब्रह्म प्रतीति का प्रवाह है, जग यह सत स्वरूप ब्रह्म
शांत चित्त हो, आत्म दृष्टि से, हर अवस्था केवल ब्रह्म

परमानंद वह रस अनुभव है, तज विषय, न कोई अर्थ 
बुद्धिमान आनंद चुनेगा, जग का ताप उसे है व्यर्थ

पूर्ण चंद्रमा जब दिखता हो, चित्र लिखित को देखे कौन
असत पदार्थ न तृप्ति देते, उनसे सुख पायेगा कौन

दुःख का नाश न होता जग से, अद्वय से आनंद बरसता
तृप्त हुआ तू इस अनुभव से, आत्मनिष्ठ हो पा समरसता

तू ही तू फैला सब ओर, कोई नहीं सिवाय तेरे
आत्मा के आनंद को पाले, काल से परे का अनुभव कर ले

ज्यों आकाश में नगर कल्पना, आत्मा भी निर्विकल्प है
है अखंड बोध स्वरूप, मिथ्या उसमें हर विकल्प है

अद्वितीय तू, आनन्दमय, परम मौन व परम शांति पा
ब्रह्म भाव से युक्त हुआ रह, निज स्वरूप के रस को पा

जिसने स्वयं को जान लिया है, स्वानंद रस उसे मिलता है
मौन प्राप्त होता है उसको, हर वासना का क्षय होता है  



Tuesday, February 21, 2012

बोधोपल्ब्धि (शेष भाग)

श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

बोधोपल्ब्धि (शेष भाग)

है सबका आधार वही, वही प्रकाशक है सबका
सर्वरूप व सर्व व्याप्त वह, नित्य, शुद्ध, अद्वैत आत्मा

भेद रहित, अंतर आत्मा, अदृश्यमान है अनंत
आनंद स्वरूप निर्विकल्प, वही एक हूँ परम ब्रह्म

क्रिया रहित, विकार रहित हूँ, निराकार, निरालम्ब
हूँ अद्वितीय, आत्मा सबका, ज्ञान स्वरूप, आनंद रूप

हे सदगुरु, मैंने पाया है, कृपा आपकी है मुझपर
बारम्बार नमन है तुमको, ज्ञान की है महिमा अनुपम

माया में मैं भटक रहा था, जन्म-मृत्यु, जरा के भय से
मेरी रक्षा की आपने, जगा दिया है गहन नींद से  

हे सदगुरु, नमन है तुमको, सत स्वरूप तुम तेजवान हो
विश्व रूप हो व्याप रहे हो, परम पूज्य तुम ज्ञानवान हो      


Monday, February 6, 2012

बोधोपल्ब्धि (शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

बोधोपल्ब्धि (शेष भाग)


सदा एकरस और निरवयव, एक रूप मैं घनीभूत हूँ
कैसे हो प्रवृत्ति मुझमें, निवृत्ति से भी अशेष हूँ

इंद्रिय, चित्त, विकार नहीं हैं, निराकार आनंद स्वरूप
पाप-पुण्य से रहित सदा मैं, श्रुति भी कहे बोध स्वरूप

उष्ण-शीत या भली-बुरी हो, वस्तु कोई छाया को छू ले
व्यक्ति को न छू सकती है, ज्यों प्रकाश को कुछ न छुए

देह के धर्म न छू सकते हैं, देह से परे आत्मा को
निर्विकार, उदासीन जो, क्या छुए परमात्मा को

सूर्य साक्षी सब कर्मों का, अग्नि साक्षी है ज्वलन की
रज्जु से ज्यों सँग सर्प का, आत्मा साक्षी है विषयों की

न मैं कर्ता, न ही कराता, न भोक्ता न भुगतवाता
न ही देखता, न दिखलाता, हूँ विलक्षण साक्षी आत्मा

चंचल जल में बिम्ब भी चंचल, सूर्य किन्तु अचल है नभ में
सूर्य समान आत्मा निश्चल, चित्त ही चंचल होता देह में

घट से ज्यों अलिप्त आकाश, देह से भिन्न आत्मा है
बुद्धि का ही खेल है सारा, प्रकृति से अतीत आत्मा  

प्रकृति में विकार हजारों, क्या संबंध आत्मा का है
मेघ न छू सकते हैं नभ को, बस आभास दृष्टि का है

अव्यक्त से स्थूल भूत तक, जिसमें यह आभास मात्र है
आदि-अंत से रहित सूक्ष्म यह, परम ब्रह्म आत्मा है 

Saturday, February 4, 2012

बोधोपल्ब्धि (शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

बोधोपल्ब्धि
मैं नारायण, त्रिपुरारी हूँ, नरकासुर का घातक भी हूँ
मुक्त, साक्षी, निर्मम, निरहंकार, परमपुरुष, ईश्वर हूँ

ज्ञानस्वरूप, आश्रय सबका, सबके भीतर बाहर भी मैं
जो पहले भिन्न दीखते थे, वही भोक्ता, भोग्य भी मैं

मैं अखंड, आनंद समुद्र सा, विश्वरूप उठती हैं तरंगें
 माया वायु बन के डुलाती, उठती, गिरती रहें तरंगें

जैसे काल में खंड नहीं हैं, कल्प, वर्ष कल्पित हैं सारे
भ्रमवश केवल स्फुरण मात्र से, स्थूल, सूक्ष्म कल्पित हैं मुझमें  

मृगतृष्णा का जल महान हो, भूमि खंड को भिगो न सकता
बुद्धि से आरोपित दोष, आश्रय को न छू सकता

निर्लिप्त हूँ नीलगगन सा, अप्रकाश्य हूँ रवि जैसा
पर्वत के समान निश्चल हूँ, हूँ अपार सागर जैसा

जैसे बादल मुक्त गगन से, मुझसे तन का मेल नहीं है
कैसे हो सकते फिर मुझमें, स्वप्न, जाग्रत, सुषुप्ति नहीं है

मात्र उपाधि आती, जाती, कर्म करे और भोगे फल भी
जरा, मृत्यु भी केवल उसकी, मैं निश्चल, अकम्प, साक्षी