Thursday, March 31, 2016

श्रीराम द्वारा ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों, त्रिजट ब्राह्मण और सुह्र्दज्ज्नों को धन का वितरण

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्वात्रिंशः सर्गः

सीतासहित श्रीराम का वशिष्ठपुत्र सुयज्ञ को बुलाकर उनके तथा उनकी पत्नी के लिए बहुमूल्य आभूषण, रत्न और धन आदि का दान तथा लक्ष्मण सहित श्रीराम द्वारा ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों, त्रिजट ब्राह्मण और सुह्र्दज्ज्नों को धन का वितरण 

कठ शाखा, कलाप शाखा के, अध्येता ब्रह्मचारी जो
अध्ययन में ही रत रहते, दूजा कार्य नहीं करते वो

अस्सी ऊंट लदे रत्नों से, एक हजार बैल दिलवाओ
चना, मूँग, चावल से लदे, दोसौ बैल और दिलवाओ

दही, घी के निमित्त उनको, एक हजार गौएँ भी दो
मेखलाधारी ब्राह्मणों के दल को, स्वर्ण मुद्राएँ दिलवा दो

माँ कौसल्या आनन्दित हों, इस भांति करो तुम पूजन
आज्ञा मिलने पर राम की, दिया दान ब्राह्मणों को धन

तत्पश्चात जो वहाँ खड़े थे, सेवक जन आश्रित उनके
दी सांत्वना उन्हें बुलाकर, गला रुंधा था अश्रुओं से

चौदह वर्षों तक चले जीविका, इतना द्रव्य प्रदान किया
लक्ष्मण व उनके घर को, न त्यागें, यह वचन लिया

सेवक दुःख से थे अति पीड़ित, धनाध्यक्ष से कहा राम ने
जितना धन है सब ले आओ, सेवक वहाँ लगे धन लाने

बहुत बड़ी राशि धन की, थी दर्शनीय उस स्थल पर
बालक, बूढ़े, दीन-हीन को, बंटवा दिया वह सारा धन

आस-पास के वन में तब, त्रिजट नामके थे ब्राह्मण
देह का रंग पड़ा था पीला, नहीं जीविका का था साधन

फाल, कुदाल, लिए हल वन में, फल-मूल ढूँढा करते थे
तरुणी थी उनकी पत्नी, स्वयं तो हो चले वृद्ध थे

छोटे बच्चों को लेकर तब, पत्नी ने उनसे विनती की
फेंक हाल, कुदाल, मिलें, श्री रामचन्द्र से वे शीघ्र ही   

कुछ अवश्य ही मिल जायेगा, बात सुनी पत्नी की जब यह
धोती फटी लपेटे तन पर, ब्राह्मण वे तब गये मार्ग पर

भृगु और अंगिरा की भांति, जनसमुदाय से हो गुजरे
राम-भवन के मध्य में पहुंचे, नहीं किसी ने रोका उनको

कहा राम से मैं निर्धन हूँ, कृपा कीजिये मुझ पर आप
पुत्र अनेक, नष्ट जीविका, वन में होता मेरा वास

तब विनोद से कहा राम ने, अनगिन गौएँ मेरे पास
 दंड जहाँ तक फेंक सकेंगे, वहाँ तक की पा लेंगे आप

यह सुनकर बड़ी तेजी से, कमर में धोती को लपेटा
लगा के सारी शक्ति अपनी, डंडे को घुमाकर फेंका

सरयू के उस पार जा गिरा, गौओं के गोष्ठ में डंडा
त्रिजट को हृदय से लगाया, दे दीं वे गौएँ मंगवा

कहे वचन सांत्वना देते, थी विनोद में बात कही
इसके लिए बुरा न मानें, मांग लें, कुछ चाहते यदि

इसे जानने की थी इच्छा, तेज आपका दुर्लंघ्य है
डंडा फेंकने हित इस हेतु, प्रेरित किया आपको मैंने

सच कहता हूँ मैं आपको, संकोच की बात नहीं है
सब ब्राह्मणों के हित है, जो भी धन है पास मेरे

यश की वृद्धि ही करेगा, विधि अनुसार दान देने से
पत्नी सहित त्रिजट मुनि तब, शुभाशीष देने लगे

यथायोग्य सम्मान पूर्वक, किया दान राम ने धन सब
कोई नहीं बचा वहाँ था, जो न हुआ आदर से तृप्त


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Wednesday, March 30, 2016

सीतासहित श्रीराम का वशिष्ठपुत्र सुयज्ञ को बुलाकर उनके तथा उनकी पत्नी के लिए बहुमूल्य आभूषण, रत्न और धन आदि का दान

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्वात्रिंशः सर्गः

सीतासहित श्रीराम का वशिष्ठपुत्र सुयज्ञ को बुलाकर उनके तथा उनकी पत्नी के लिए बहुमूल्य आभूषण, रत्न और धन आदि का दान तथा लक्ष्मण सहित श्रीराम द्वारा ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों, त्रिजट ब्राह्मण और सुह्र्दज्ज्नों को धन का वितरण

प्रियकर, हितकर आज्ञा पाकर, लक्ष्मण गये सुयज्ञ के घर
अग्निशाला में बैठे थे, दिया निमन्त्रण नमस्कार कर

संध्योपासना कर सम्पन्न, श्रीराम के भवन में आये
अग्नि सम तेजस्वी थे वे, स्वागत किया राम-सीता ने

सुवर्ण मणि, सुंदर कुंडल से, केयूर, वलय अन्य रत्नों से
तेजस्वी, वेदवेत्ता थे, उनका पूजन किया राम ने

सीता की प्रेरणा से तब, कहे वचन तब ये सुयज्ञ से
सखी तुम्हारी पत्नी की जो, सीता उसे कुछ देना चाहे  

सुवर्ण सूत्र, हार, करधनी, अंगद और सुवर्ण केयूर
पलंग विभूषित बिछौनों से जो, ले जाओ तुम अपने घर

शत्रुंजय हाथी है मेरा, मामा ने जो भेंट किया
एक हजार अशर्फियों के संग, मैं तुमको अर्पित करता

श्रीराम के यह कहने पर, कीं ग्रहण वस्तुएँ विप्र ने
राम, लक्ष्मण, सीता के हित, तब सुंदर आशीर्वाद दिए  

शांतभाव से खड़े हुए तब, राम लक्ष्मण से बोले
कहते हैं जैसे ब्रह्मा, देवलोक के नृप इंद्र से

विश्वामित्र और अगस्त्य का, रत्नों से करो पूजन
 मेघ तृप्त ज्यों करें धरा को, तृप्त करो उनको दे धन

सोना-चाँदी, गौएँ, मणियाँ, भेंट करो आदर उनको दे
यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा, का जो अध्ययन करने वाले

वेदों के विद्वान्, आचार्य, जो दान पाने के योग्य
आशीवाद करें प्रदान, कौशल्या माँ के जो भक्त

दस-दासियाँ, वस्त्र, सवारी, धन भी उनको दिलवाओ
श्रेष्ठ सचिव जो सूत चित्ररथ, गौएँ उनको दान करो  

Monday, March 28, 2016

श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण का वनगमन के लिए तैयार होना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकत्रिंशः सर्गः
श्रीराम और लक्ष्मण का संवाद, श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण का सुह्रदों से पूछकर और दिव्य आयुध लाकर वनगमन के लिए तैयार होना, श्रीराम का उनसे ब्राह्मणों को धन बांटने का विचार व्यक्त करना

सीता और राम के मध्य, बात चल रही थी जिस क्षण
रघुकुल को सुख देने वाले, पहुँच गये थे वहाँ लक्ष्मण

दोनों का संवाद सुना जब, मुखमंडल अश्रु से भीगा
भाई के विरह का शोक, असह्य अब उन्हें हो उठा

दोनों पैर राम के पकड़े, व्रतधारी राम से बोले
अनुसरण मैं भी करूँगा, आप यदि वन को जा रहे

वन्यजीव हैं जहाँ विचरते, कलरव पक्षीगण करते
भ्रमण कीजियेगा मेरे संग, भ्रमरों से गुंजित वन में

बिना आपके नहीं चाहता, स्वर्ग लोक अथवा अमरता
ऐश्वर्य सम्पूर्ण लोक का, पाने की इच्छा न रखता

रामचन्द्र ने जब समझाया, मना किया उनको जाने से
किन्तु न मानी उनकी बात, पुनः लक्ष्मण यह बोले

अपने साथ मुझे रहने की, पहले से ही दी आज्ञा
क्यों रोकते अब मुझको, आखिर क्या कारण इसका 

ऐसा कहकर वीर लक्ष्मण, खड़े हुए राम के आगे
हाथ जोड़कर की याचना, कहे वचन राम ने उनसे

सन्मार्ग में चलने वाले, लक्ष्मण तुम मेरे स्नेही हो
प्राणों सम प्रिय हो मुझको, आज्ञापालक और सखा हो

तुम भी चल दोगे यदि वन को, कौन करेगा माँ की सेवा
महाराज अब विवश हुए हैं, कैकेयी ने उनको बाँधा

कैकेयी भी राज्य को पाकर, सौतों से खुश नहीं रहेगी
भरत भी हैं उसके आधीन, माँएं किस आश्रित रहेंगी

इसीलिए रह यहीं यदि, पालन करोगे कौशल्या का
मेरे प्रति प्रेम प्रकटेगा, अनुपम धर्म प्राप्त भी होगा

मर्म समझते थे लक्ष्मण, मधुर स्वरों में कहा राम से
दोनों को भरत पूजेंगे, संशय नहीं, आपके प्रभाव से

पाकर इस उत्तम राज्य को, यदि कुमार्ग पर भरत चलेंगे
दंडित मैं करूंगा उनको, यदि माओं की रक्षा न करेंगे  

किन्तु समर्थ हैं माँ कौशल्या, मुझ जैसों का पालन करने में
भरण हेतु निज आश्रितों के, सहस्त्र गाँव हैं उन्हें मिले

अतः बना लें मुझे अनुगामी, तब कृतार्थ मैं हो जाऊंगा
धर्म की इसमें नहीं है हानि, सिद्ध प्रयोजन आपका होगा

धनुष धार, खंती लेकर, मार्ग दिखाता मैं चलूँगा
फल-मूल प्रतिदिन लाकर, हवन सामग्री भी लाऊँगा

पर्वत शिखरों पर जब आप, विदेह कुमारी संग विचरेंगे
सभी कार्य मैं पूर्ण करूंगा, सोते-जगते सदा आपके

हुए प्रसन्न राम यह सुनकर, बोले, जाओ अनुमति लेने
माता व सुह्रदों से मिलकर, वन यात्रा के बारे में

राजा जनक के महायज्ञ में, दिव्य धनुष जो दिए वरुण ने
दिव्य कवच, तथा तरकस भी, खड्ग दमकते हुए सूर्य से

रखे हैं आचार्य के घर में, दिव्यास्त्र वे सत्कार पूर्वक
शीघ्र उन्हें तुम लेकर आओ, गये लक्ष्मण आज्ञा पाकर

सुहृदों की लेकर अनुमति, वन जाने को तैयार हो गये
मुनि वशिष्ठ के यहाँ से लाकर, राम को आयुध सौंप दिए

हो प्रसन्न तब कहा राम ने, उचित समय पर तुम आये
मेरा जो यह धन है इसको, बांटना चाहूँ साथ तुम्हारे

भक्तिभाव से युक्त जो ब्राह्मण, मेरे पास रहा करते
धन बांटना सबको चाहूँ, अन्य सभी जो शेष रह गये

ब्राह्मणों में जो श्रेष्ठ अति हैं, लाओ गुरु पुत्र सुयज्ञ को
उनका व सब आश्रितों का, कर सत्कार मैं जाऊं वन को


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Friday, March 4, 2016

श्रीराम का सीताको साथ ले चलने की स्वीकृति देना,

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रिंशः सर्गः
सीता का वन में चलने के लिए अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीराम का उन्हें साथ ले चलने की स्वीकृति देना, पिता-माता और गुरुजनों की सेवा का महत्व बताना तथा सीता को वन में चलने के लिए तैयारी के लिए घर की वस्तुओं का दान करने की आज्ञा देना 

बड़े-बड़े नेत्रों से शोभित, पूर्ण चन्द्र सा मुख कांतिमय
जल से निकले कमल की भांति, सूख गया दुःख ताप से

दुःख के मारे थीं अचेत सी, उर से लगा लिया राम ने
दी सांत्वना अति प्रेम से, तब ये सुंदर वचन कहे

स्वर्ग का सुख भी मिलता हो, लूँगा नहीं तुम्हें दुःख देके
स्वयंभू ब्रह्मा की भांति, किंचित भी नहीं भय किसी से

 हूँ समर्थ रक्षा में, किन्तु, उचित नहीं समझता था  
बिना तुम्हारी इच्छा के, वन जाने को तुमसे कहना

जब तुम उत्पन्न ही हुई हो, वन में मेरे संग रहने को
ज्यों ज्ञानी प्रसन्नता न त्यागें, नहीं छोड़ सकता मैं तुमको

पूर्वकाल के सत्पुरुषों ने, जिस धर्म का किया था पालन
साथ तुम्हारे रहकर मैं भी, करूंगा उसका ही निर्वहन

सुर्वचला ज्यों सूर्य का करती, तुम भी करो अनुगमन मेरा
सम्भव नहीं कि वन न जाऊं, वचन पिता का ले जा रहा

पुत्र धर्म है आज्ञा पालन, इसके बिना नहीं रह सकता
धर्म, अर्थ, काम के दाता, माता-पिता प्रत्यक्ष देवता

पिता की सेवा ही मानव के, कल्याण को प्राप्त कराती
नहीं सत्य, दान, न यज्ञ, मिल जाता सब कुछ इससे ही

माता-पिता की सेवा करके, मिल सकते हैं लोक सभी
यही सनातन धर्म है सुंदर, पालन करूंगा इसका ही

‘मैं वन में निवास करूंगी’, ऐसा तुमने किया है निश्चय
बदल गया विचार अब मेरा, चलोगी तुम भी दंडकारण्य

करो आचरण धर्म का अब, देता वन जाने की आज्ञा
दोनों कुलों के है योग्य यह, सुंदर निश्चय है तुम्हारा

वनवास के जो योग्य हैं, दान आदि अब कर्म करो
ब्राह्मणों को रत्न आदि, भोजन दो भिक्षुओं को

बहुमूल्य आभूषण, वस्त्र, जो भी हो सुंदर सामग्री
दान करो या उन्हें बाँट दो, वस्तुएं मेरी और तुम्हारी

स्वामी ने स्वीकार किया है, जान के सीता हुईं प्रसन्न
जुट गयीं शीघ्र दान देने में, सभी वस्तुएं, धन व रत्न


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.



Thursday, March 3, 2016

सीता का वन में चलने के लिए अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीराम का उन्हें साथ ले चलने की स्वीकृति देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रिंशः सर्गः
सीता का वन में चलने के लिए अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीराम का उन्हें साथ ले चलने की स्वीकृति देना, पिता-माता और गुरुजनों की सेवा का महत्व बताना तथा सीता को वन में चलने के लिए तैयारी के लिए घर की वस्तुओं का दान करने की आज्ञा देना

श्रीराम के समझाने पर, सीता ने ये वचन कहे
भय, प्रेम व अभिमान से, थे कथन वे भरे हुए

कर आक्षेप राम पर बोली, पिता जानते थे क्या मेरे
 पुरुष मात्र देह से हैं आप, स्त्री हैं कार्य कलाप से

 कह सकते अज्ञान वश लोग, मुझे छोड़ गये यदि आप
सूर्य समान राम के भीतर, तेज, पराक्रम का है अभाव

किससे भय आपको होता, किस कारण आपको विषाद
जो मात्र आश्रित आपकी, मुझ सीता का करते त्याग

सत्यवान की अनुगामिनी, जिस प्रकार हुई थी सावित्री
मानें निज आज्ञा के अधीन, उसी तरह ही आप मुझे भी

परपुरुष पर रखे दृष्टि, जैसे कोई कुल कलंकिनी
साथ चलूंगी मैं आपके, न देखूं परपुरुष मन से भी

जिसका विवाह हुआ आपसे, चिरकाल तक संग रही जो
सौंप रहे दूसरे के हाथ, सती-साध्वी उस पत्नी को

शिक्षा आप मुझे देते हैं, अनुकूल जिसके चलने की
राज्यभिषेक रुका जिस हित, अधीन नहीं उसके रहूंगी

उचित नहीं इसी कारण, मेरे बिना वन को जाना
हो वनवास, स्वर्ग या तप, साथ आपके चाहूँ रहना

जैसे उपवन के विहार या, सोने में नहीं होता कष्ट
उसी प्रकार वन में चलने पर, जान पड़ेगा नहीं परिश्रम

कुश, सरकंडे, कांटे, सींक, रुई समान सुखद ही होंगे
धूल बनेगी चन्दन जैसी, संग आप यदि मेरे होंगे

घासों पर भी सो सुख पाऊं, पलंगों पर अधिक सुख होगा ?
निज हाथों से देंगे आप, फल, मूल अमृत सम होगा

ऋतू अनुकूल फल खा रहूँगी, महल, माँ-पिता याद न आयें
प्रतिकूल व्यवहार न होगा, मेरे कारण कष्ट न पायें

नहीं कठिन मेरा निर्वाह, जहाँ आप हैं वहीं स्वर्ग है
बिना आपके नर्क समान, यही एकमात्र निश्चय है

नहीं कोई घबराहट वन की, ले न चले संग आप यदि
विष आज ही मैं पी लूँगी, शत्रु अधीन हो नहीं रहूँगी

मुझे त्याग यदि वन जाएँ, दो घड़ी जीवन नहीं सम्भव
विरह शोक नहीं सह सकती, कैसे सहूँगी चौदह बरस

इस प्रकार करके विलाप, सीता दुःख से शिथिल हुई
पकड़ पति को कर आलिंगन, फूट फूटकर वह रोयीं

जैसे कोई घायल हथिनी, सीता मर्माहत हुई थीं
अरणी जैसे आग प्रकटाती, वैसे वे आँसूं बरसातीं

स्फटिक समान निर्मल जल बहता, उनके दोनों नेत्रों से
जल धारा जैसे बहती हो, मानों दो सुंदर कमलों से