Thursday, September 29, 2011

साधन-चतुष्टय (चार साधन) (शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

साधन-चतुष्टय (चार साधन) (शेष भाग)


चिंता व शोक से दूर, साधक सब कष्टों को सहता
तितिक्षा की साधना करे जो, प्रतिकार का भाव न रखता

शास्त्र सत्य हैं, गुरु सत्य है, ऐसा मन में दृढ विश्वास
श्रद्धा इसी को कहते मुनि जन, याद रहे श्वास-प्रश्वास

बुद्धि सदा ब्रह्म में स्थित, समाधान इसको ही कहते
मन की इच्छा पूर्ति हो रहे, समाधान न इसको कहते

अहंकार से देह पर्यन्त, जितने कल्पित बंधन बांधे
मुमुक्षत्व की चाह है जिसमें, निज स्वरूप से उन्हें तजे

मोक्ष कामना तीव्र न हो यदि, गुरु कृपा से फल देती है
वैराग्य व षट् सम्पति, शनैः शनैः इसे बढा देती है

तीव्र मुमुक्षत्व और वैराग्य, मन का निग्रह शीघ्र कराते  
इन्द्रियां भी हो संयमित रहतीं, षट् सम्पति भी पा जाते

जहाँ मंद है अति वैराग्य, मुमुक्षत्व भी तीव्र नहीं है
शमादि  भी नहीं टिकेंगे, मरुथल में ज्यों जल नहीं है

सर्व कारणों में मुक्ति के, सबसे बढकर है भक्ति
आत्मतत्व का अनुसंधान, निज स्वरूप की खोज ही भक्ति  





Wednesday, September 28, 2011

साधन-चतुष्टय (चार साधन)



श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

साधन-चतुष्टय (चार साधन)

ज्ञानी और मनस्वी जन ने, चार मुख्य साधन बतलाये
जिनका पालन करने से ही, मन आत्मा में टिक जाये

नित्य-अनित्य वस्तु विवेक ही, पहला साधन है ज्ञान का
वैराग्य जिसने साधा है, तजे लोभ दोनों ही लोक का

षट् सम्पति का अधिकारी, ज्ञान साधना कर सकता है
मोक्ष की हो अभिलाषा जिसमें, वही ब्रह्म को पा सकता है

शम, दम, उपरति और तितिक्षा, संग हो श्रद्धा व समाधान
कहलातीं ये षट् सम्पतियाँ, जिनके द्वारा होता ज्ञान

ब्रह्म सत्य है जगत है मिथ्या, जो ऐसा निश्यच रखता
नित्य-अनित्य वस्तु विवेक, उस के ही उर में पलता

निज देह से ब्रह्म लोक तक, सब कुछ है अनित्य, जो जाने
क्या देखना, सुनना, कहे जो, उसमें ही वैराग्य मानें

व्यर्थ हैं विषय सुख सारे, हो विरक्त स्वय में रहता
मन का यूँ निग्रह करना ही, शम ऐसा है कहलाता

कर्मेंद्रियां व ज्ञानेद्रियाँ, विषयों से लौटा ली जातीं
अपने में ही शांत हो रहतीं, यही दम सम्पति कहलाती

मन की वृत्ति स्वयं में रहती, बाहर जाकर नहीं भटकती
इसी अवस्था को चित्त की, ज्ञानी कहते हैं उपरति 

Monday, September 26, 2011

आत्म ज्ञान का अधिकारी कौन


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित

विवेक – चूड़ामणि



आत्म ज्ञान का अधिकारी कौन

जो अधिकारी है ज्ञान का, फल सिद्धि उसी को सम्भव
मन में यदि जिज्ञासा उत्तम, देश, काल भी हैं सहायक

सद्गुरु श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी है, शरण में उनकी जाना होगा
आत्म तत्व का जो जिज्ञासु, अहंकार मिटाना होगा

बुद्धिमान हो व विद्वान, तर्क वितर्क जिसे आता है
आत्म ज्ञान का अधिकारी भी, वह चाहे तो बन सकता है

विवेक वान, वैरागी मन का, शम, दम आदि से संयुक्त
ब्रह्म को वह ही पा सकता, जिसके भीतर जगा मुमुक्षत्व

   

ज्ञानप्राप्ति का उपाय



श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित

विवेक – चूड़ामणि


ज्ञानप्राप्ति का उपाय

सुख भोग की तज कामना, साधक सद्गुरु शरण में जाये
उनके उपदेशों को सुन कर, मुक्ति के लिए करे उपाय

सत्य आत्मा में स्थित हो, योग में हो आरूढ़ रहे
डूब रहा जो भवसागर में, स्वयं का स्वयं उद्धार करे

व्यर्थ चेष्टा तज दे सारी, एक साधना में तत्पर हो
भव बंधन से पानी मुक्ति, लक्ष्य सदा सम्मुख हो

कर्म से होती चित्त की शुद्धि, ज्ञान नहीं होता कर्मों से
‘तत्व’ विचार से ही मिलता है, न क्रियाकांड के धर्मों से

रज्जु में सर्प भ्रम हो गया, अति दुःख जो देने वाला
विचार किये से ही छूटेगा, स्वयं को जिस बंधन में डाला

ज्ञान से ही भ्रम दूर हो सके, स्नान, दान जितने कर ले
दृढ विचार से दुःख मिटता है, प्राणायाम भी कितने कर ले
    

Friday, September 23, 2011

श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक – चूड़ामणि


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


मंगला चरण

जो अज्ञेय परम पुरुष है, वेद-वाक्यों से जाना जाता
परमानंद स्वरूप सद्गुरु, गोविन्द हित नत मस्तक होता

ब्रह्मनिष्ठा का महत्व

मानव जन्म अति दुर्लभ है, उससे दुर्लभ जिज्ञासु होता
नित्य-अनित्य का भेद मनुज को, शुभ कर्मों के बिना न मिलता

ईश कृपा ही जिसका हेतु, मानव जन्म तभी मिलता है
मोक्ष की इच्छा भी दुर्लभ है, सद्गुरु मुश्किल से मिलता है

जिसको ऐसा मिला है अवसर, ज्ञान का पथ भी जिसे मिला है
आत्म मुक्ति का प्रयत्न न करे, स्वयं को उसने नष्ट किया है

जो न करता खोज स्वयं की, जो प्रमाद में घिरा हुआ है
कौन है उससे बढकर मूर्ख, जो अज्ञान में ही रहता है

शास्त्र सभी जानता कोई, पूजन यजन भी करता है
जब तक आत्मज्ञान न साधा, दूर मुक्ति से रहता है

धन से अमृत तत्व न मिलता, श्रुतियो में यह कहा गया  
कुछ कर के भी पा न सकते, इससे ऐसा स्पष्ट हुआ    


Thursday, September 22, 2011

अष्टदशोऽअध्यायः(अंतिम भाग) मोक्षसंन्यासयोग


प्रिय ब्लोगर मित्रों, आज भगवदगीता के भावानुवाद की अंतिम कड़ी है, दिनांक २७ मई २०११ को मैंने इसे प्रारम्भ किया था कृष्ण कृपा तथा आप सभी सुधी पाठकों के सहयोग से यह कार्य आज पूर्ण हुआ है. आशा है भविष्य में भी आप इसी तरह श्रद्धा सुमन पर अपना प्रेम बनाये रखेंगे.  



अष्टदशोऽअध्यायः(अंतिम भाग)
मोक्षसंन्यासयोग


गुह्तम ज्ञान पुनः कहता हूँ, परम हितकारी, हे अर्जुन !
मेरा अतिशय प्रिय भक्त है, रहस्य युक्त वचन यह सुन

मुझमें मन वाला हो जा, भक्त हुआ मेरा पूजन कर
कर प्रणाम, मुझे पायेगा, सत्य कहूँ, तू मेरा प्रियवर

सब धर्मों को तज के केवल, एक शरण में मेरी आ
शोक न कर सर्व शक्तिमय मैं, सब पापों से मुक्त करूँगा

जो न संयमी, न ही एकनिष्ठ, रत हैं जो न भक्ति में
द्वेष यहाँ जो करते मुझसे, गुह्तम ज्ञान न कहो उन्हें

परम रहस्य मेरा यह अनुपम, जो प्रेमी भक्तों को कहेगा
वसुंधरा पर उससे बढकर, मेरा प्रिय कभी न होगा

दोष दृष्टि से रहित श्रद्धालु, इस शास्त्र का श्रवण करेगा
वह पाप से मुक्त हुआ नर, श्रेष्ठ लोक को प्राप्त करेगा

एकीभाव से सुना क्या तुमने, मोह नष्ट हुआ क्या अर्जुन
गीता ज्ञान को सुनते-सुनते, हुआ तेरा अज्ञान विनष्ट ?

कृपा आपकी पाई अच्युत !, मोह विनष्ट हुआ है मेरा
पुनः पा गया स्मृति अपनी, संशय रहित हुआ मन मेरा

हे केशव ! मैं वही करूँगा, जो कहते हैं आप मुझे
हर्षित हूँ पा कृपा आपकी, अब कोई संशय न मुझे  

संजय बोले धृतराष्ट्र से, कितना अद्भुत यह संवाद
वासुदेव भगवान कृष्ण ने, पृथा पुत्र को दिया यह ज्ञान

दिव्य दृष्टि पायी थी मैंने, हुआ समर्थ मैं योग श्रवण को
परम गुप्त इस गहन ज्ञान को, कहा कृष्ण ने जब अर्जुन को

पुनः पुनः स्मरण करता हूँ, गोपन मंगलमयी वचनों को
केशव, पार्थ के मध्य घटी, अद्भुत इस शुभ वार्ता को

उस अति विलक्षण विश्व रूप को, पुनः पुनः स्मरण करता  
परम आश्चर्य से भर जाता, बार-बार मन हर्षित होता

जहां कृष्ण योगेश्वर संग हैं, अर्जुन वीर गांडीव धारी
वहीं विजय और श्री है, विभूति अचल, नीति न्यारी



Wednesday, September 21, 2011

अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग) मोक्षसंन्यासयोग


अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग)
मोक्षसंन्यासयोग


आत्मसंयमी, अनासक्त जो, मन को जीत लिया है जिसने  
सांख्ययोग द्वारा मन साधे, परम सिद्धि को पाया उसने

परमसिद्धि को कैसे पाता, जो ज्ञान की परम अवस्था
सुनो ध्यान से हे पार्थ तुम, संक्षेप में तुम्हें कह  रहा

बुद्धि शुद्ध हुई है जिसकी, धैर्य पूर्वक मन भी वश में
राग-द्वेष से मुक्त हुआ जो, दृढ वैरागी, मुक्त क्रोध से

ममतारहित शांत चित्त जो, वही ब्रह्म को पा सकता
अल्पहारी, एकांतप्रिय है, सदा ध्यान में डूबा रहता

दिव्य पद पर जो स्थित है, सदा प्रसन्न बना रहता
न ही शोक कभी वह करता, न कोई आकांक्षा करता

ऐसा समभाव युक्त जो, पराभक्ति को पा लेता है
एकी भाव से ब्रह्म में स्थित, परम सिद्धि को पा लेता

मैं जो भी हूँ, जितना भी हूँ, वैसा ही तत्व से जाने
पराभक्ति से मुझे जान कर, मुझमें ही प्रवेश कर जावे

कर्मों में जो रत है योगी, मेरी कृपा सहज है उस पर
परम पद प्राप्त कर लेता, मेरे सदा बना परायण

मन से मुझमें सब कर्मों को, अर्पित कर तू हे अर्जुन
समबुद्धि योग के आश्रित, चित्त मुझीमें, मेरे परायण

मुझमें चित्त लगायेगा यदि, कृपा से हों बाधाएं नष्ट
अहंकार वश यदि न सुने, परमार्थ से होगा भ्रष्ट
    
अहंकार वश युद्ध करे न, निश्चय तेरा यह मिथ्या है
विवश हुआ तू युद्ध करेगा, स्वभाव तेरा ऐसा ही है

मोह के वश जिस कर्म को त्यागे, परवश होकर उसे करेगा
अपने ही स्वभाव से उत्पन्न, कर्म तुझे बाधित कर देगा  

सब जीवों के हृदय में स्थित, निज माया से उन्हें से नचाता
देह यंत्र में हो आसीन, परमात्मा है परम विधाता

सब भांति से शरण में आ तू, परम शांति को तू पायेगा
परमात्मा की परम कृपा से, नित्य धाम में तू जायेगा

गोपन से भी अति गोपनीय, मैंने तुझे यह ज्ञान दिया है
कर विचार इस परम ज्ञान पर, वही कर, जो तुझे रुचा है 

Monday, September 19, 2011

अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग) मोक्षसंन्यासयोग


अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग)
मोक्षसंन्यासयोग

फल की इच्छा रखने वाला, धर्म, अर्थ, काम को धारे
वह धारणा शक्ति राजस, जिससे मोक्ष नहीं विचारे

जो दुर्बुद्धि पूर्ण धृति, स्वप्नों में उलझाये रखती
भय, शोक से परे न जाती, वह तामसिक कहलाती

तीन तरह के सुख भी होते, जिनसे मानव बंधा हुआ है
कभी–कभी अभ्यास से जिनके, दुखों का भी अंत हुआ है

जो सुख मिलता विषयों से, जब इन्द्रियां उनसे जुड़तीं
अमृत तुल्य लगता पहले, अंत में विष सम, सुख रजोगुणी

निद्रा, आलस और प्रमाद से, जो तामस सुख नर को मिलता
अंत हो या आरम्भ सभी दुःख, आत्मा को है मोहित करता

पृथ्वी हो या गगन अनंत, चाहे देवों का लोक हो
कोई कहीं नहीं है ऐसा, तीनों गुणों से जो मुक्त हो

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र के, कर्म स्वभाव से उत्पन्न होते
गुणों के द्वारा भेद है उनमें, भिन्न-भिन्न कर्म वे करते

अंतः करण का निग्रह करना, आत्मसंयम व पवित्रता
सहनशीलता, सत्यनिष्ठा, क्षमाशीलता और सरलता

वेद, शास्त्र, वेदों में श्रद्धा, परमात्मा के तत्व का अनुभव
ज्ञान, विज्ञान और धार्मिकता, ब्राह्मण के गुण स्वभाव गत

खेती, गोपालन, व्यापार, कर्म स्वाभाविक हैं वैश्य के
सबकी सेवा, श्रम शारीरिक, कर्म यही हैं शुद्र जनों के

अपने-अपने कर्म में रत हो, मानव सिद्धि पा सकता है
तुझसे कहता सुन हे अर्जुन, कैसे मानव तर सकता है

जिससे सारे प्राणी उपजे, जिससे यह जगत व्याप्त है
उसकी पूजा निज कर्मों से, जो करे, सहज वह उसे प्राप्त है

निज धर्म ही श्रेष्ठ है अर्जुन, चाहे कितना गुण रहित है
भली प्रकार आचरण किया हो, पर धर्म फिर भी गर्हित है

स्वधर्म निज प्रकृति से उपजा, कभी पाप में नहीं लगाता
अपने-अपने धर्म का पालन, मानव को श्रेष्ठतर बनाता

दोषयुक्त हो चाहे कितना, सहज कर्म कभी न त्यागें  
जैसे अग्नि ढकी धूम से, सभी कर्मों में दोष व्यापते

Friday, September 16, 2011

अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग) मोक्षसंन्यासयोग


अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग)
मोक्षसंन्यासयोग

ज्ञान, कर्म व कर्ता के भी, तीन भेद गुणों अनुसार
मैं तुझसे ये सभी कहूँगा, भली प्रकार तू इन्हें विचार

जिस ज्ञान से पृथक जनों में, व्यापक एक आत्मा दिखता
ऐसा ज्ञान सात्विक होता, सम भाव को जो बढ़ाता

जिस ज्ञान के द्वारा मानव, भिन्न भाव भिन्न में देखे
उस ज्ञान को राजस जान, जो भेद बुद्धि को बढाये

एक देह में हुआ आसक्त, युक्ति हीन जो तुच्छ ज्ञान है
तत्व का जिसमें अर्थ नहीं है, ऐसा ज्ञान तामसिक ही है

शास्त्रविधि से नियत कर्म जो, कर्ता का अभिमान न हो
वह सात्विक कहलाता है, जो राग-द्वेष के बिना किया हो

अहंकारी पुरुष के द्वारा, कर्म हुआ जो अत्यधिक श्रम से
 राजस कर्म वह कहलाता है, शीघ्र ही जिसका फल वह चाहे

बिना विचारे शुरू किया जो, करने की क्षमता न जांची
हानि उठाकर हिंसा द्वारा, तामसिक है, कर्म हो जो भी

असंग, निरहंकारी कर्ता हो, धैर्य और उत्साह युक्त
कार्य सिद्ध हो अथवा न हो, सात्विक कर्ता सम भावित

लोभी, आसक्त, कर्म फल चाहे, कष्ट दूसरों को देता
अशुद्ध आचारी राजस है वह, हर्ष-शोक में लिप्त हुआ

जो कर्ता है धूर्त, अशिक्षित, अभिमानी, आलसी, चिंतित
नष्ट करे अन्यों की जीविका, दीर्घसूत्री वह है तामसिक

तीन तरह की ही होती है, बुद्धि और धृति  भी अर्जुन
सतो, रजो व तमो गुणी, अब करता मैं इनका वर्णन

प्रवृत्ति- निवृत्ति क्या है, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के भेद को
बुद्धि सात्विक जो जानती, भय-अभय, बंधन-मोक्ष को

धर्म-अधर्म जो नहीं जानती, कर्त्तव्य भी न पहचाने
वह बुद्धि राजसिक जान, क्या है अकर्त्तव्य, न जाने

तमोगुण से घिरी जो बुद्धि, अधर्म को ही धर्म मानती
सबमें ही विपरीत देखती, दुःख में ही सुख माना करती

मन, प्राण व इन्द्रियों को, भजन, ध्यान आदि में लगाती
बुद्धि योग में युक्त करे जो, वह धृति सात्विकी कहलाती