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Friday, May 9, 2014

गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तत्रिंशः सर्गः

गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग 

हे निष्पाप राम ! सुनो फिर, गंगा ने वह गर्भ निकाला
प्रकाशमान उस गर्भ को, उचित स्थाप पर रख डाला

जाम्बूनद स्वर्ण जैसा वह, कान्तिमान दिखाई देता
स्वर्णमयी हुई भूमि वहाँ की, अनुपम प्रभा एक बिखराता  

आस-पास की सभी वस्तुएं, सुवर्ण समान प्रकाशित हुईं
रजत समान स्थान हुआ वह, अद्भुत ज्योति वहाँ फैली

दूरस्थ जो थीं वस्तुएँ, ताम्बे व लोहे में बदलीं
उस तेजस्वी गर्भ के मल से, बना रांगा व सीसा भी  

उस तेज की तीक्ष्णता से, धातुओं का निर्माण हुआ
पृथ्वी पर पड़कर वह तेज, वृद्धि को था प्राप्त हुआ

हुआ सुवर्ण श्वेत पर्वत वह, सारा वन भी जगमग करता
उसी समय से नाम सुवर्ण का, अग्नि सम जातरूप हुआ

तृण, वृक्ष, लता व गुल्म, सुवर्ण धातु के सभी हुए
इंद्र, मरुद्गण सहित देव सब, कुमार जन्म पर थे आये

छह कृत्तिकाओं को बुलवाया, बालक का पोषण करने को
शर्त रखी उत्तम उन सबने, “यह शिशु हम सबका पुत्र हो”

कार्तिकेय कहलायेगा यह, वचन दिया देवों ने उनको
निश्चित जब विश्वास हुआ, दूध प्रदान किया बालक को

देवों का जब वचन सुना यह, शिव-पार्वती से स्कन्दित
गंगा द्वारा प्रकट हुआ, अग्नि सम जो था प्रकाशित

उस बालक को कृत्तिकाओं ने, बड़े प्रेम से नहलाया
स्कन्द नाम भी मिला उन्हें, छह मुख से स्तनपान किया

एक ही दिन में हुआ बलशाली, दैत्यों पर विजय पायी
सेनापति बने देवों के, कीर्ति पताका फहराई

गंग का चरित्र बतलाया, कार्तिकेय का जन्म प्रसंग
धन्य हुआ जो सुनता इसको, पाता है वह लोक स्कन्द


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतीसवां सर्ग पूरा हुआ.