Friday, December 24, 2010

भावांजलि

रंग भरा यह जग सारा है
बादल रंगीं, पंछी रंगीं
जल में सूर्य रंग बरसाता,
रंग हमें आनन्दित करते !

नन्हें बालक मुग्ध खेलते
निरख निरख प्रभु हर्षित होता !
लहरें तरल स्वर बिखरातीं
सर-सर-सर-सर गीत सुनाते,
पत्ते वन-वन डोला करते
जैसे लोरी शिशु हों सुनते !

तुमसे मिलकर मिटी दूरियाँ
अपने हो गए सभी पराये,
अनजाने जाने से लगते
परिचय तुमने दिये कराए !
हो तुम जन्मों के चिर-परिचित
जीवन में तुम ! तुम्हीं मरण में,
दूरस्थ निकट तुम ला देते
स्वयं प्रतिपल साथ रहे मेरे !

3 comments:

  1. आत्मरूप वही नियंता तो कण कण में विद्यमान है!
    सुन्दर!!

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  2. तुमसे मिलकर मिटी दूरियाँ
    अपने हो गए सभी पराये,
    अनजाने जाने से लगते
    परिचय तुमने दिये कराए !
    हो तुम जन्मों के चिर-परिचित
    जीवन में तुम ! तुम्हीं मरण में,
    दूरस्थ निकट तुम ला देते
    स्वयं प्रतिपल साथ रहे मेरे !

    ati sunder bhav!

    किसी ने पूछा क्या बढ़ते हुए भ्रस्टाचार पर नियंत्रण लाया जा सकता है ?हाँ ! क्यों नहीं !कोई भी आदमी भ्रस्टाचारी क्यों बनता है? पहले इसके कारण को जानना पड़ेगा.

    सुख वैभव की परम इच्छा ही आदमी को कपट भ्रस्टाचार की ओर ले जाने का कारण है.

    इसमें भी एक अच्छी बात है.

    अमुक व्यक्ति को सुख पाने की इच्छा है ?

    सुख पाने कि इच्छा करना गलत नहीं.

    पर गलत यहाँ हो रहा है कि सुख क्या है उसकी अनुभूति क्या है वास्तव में वो व्यक्ति जान नहीं पाया.

    सुख की वास्विक अनुभूति उसे करा देने से, उस व्यक्ति के जीवन में, उसी तरह परिवर्तन आ सकता है. जैसे अंगुलिमाल और बाल्मीकि के जीवन में आया था.

    आज भी ठाकुर जी के पास, ऐसे अनगिनत अंगुलीमॉल हैं, जिन्होंने अपने अपराधी जीवन को, उनके प्रेम और स्नेह भरी दृष्टी पाकर, न केवल अच्छा बनाया, बल्कि वे आज अनेकोनेक व्यक्तियों के मंगल के लिए चल पा रहे हैं.

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  3. पुष्पाजी, आपने बिल्कुल ठीक लिखा है, वह परम शक्ति तो हर पल हमारे साथ है, वह आनंद का स्रोत है, मानव गलत जगह सुख खोज रहा है और दुःख पा रहा है !

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