Wednesday, December 22, 2010

भावांजलि

यह भव सागर, तट पर जिसके
इक भारी मेला लगा हुआ,
ऊपर नीला आकाश तना
नीचे लहरों का खेल चला !
नाविक निकले बैठ नाव पर
मोती, माणिक, मूंगा पाने,
नन्हें बालक खेलें तट पर
अविरत खेल कौन सा जाने ?

शिशु की मुंदी हुई पलकों पर
चंदा की चाँदनी छायी,
दूर देश में परी लोक है
नींद शिशु की वहीं से आयी !
नाजुक अधरों की मुस्कानें
शरदकाल में जन्मी होंगी,
कोमल रेशमी काया तन की
माँ की रूप माधुरी लायी !

अनिता निहालानी
२२ दिसंबर २०१०

3 comments:

  1. नन्हें बालक खेलें तट पर
    अविरत खेल कौन सा जाने ?
    सुन्दर!!!

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  2. पहली बार आया आपके ब्लॉग पर..
    वाकई बहुत सुकून मिला इन भावांशों को पढ्कर..
    बहुत बहुत आभार आपका...

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  3. बहुत अनुपम भाव.मन किसी दूसरे लोक में ही पहुँच जाता है.

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