यह भव सागर, तट पर जिसके
इक भारी मेला लगा हुआ,
ऊपर नीला आकाश तना
नीचे लहरों का खेल चला !
नाविक निकले बैठ नाव पर
मोती, माणिक, मूंगा पाने,
नन्हें बालक खेलें तट पर
अविरत खेल कौन सा जाने ?
शिशु की मुंदी हुई पलकों पर
चंदा की चाँदनी छायी,
दूर देश में परी लोक है
नींद शिशु की वहीं से आयी !
नाजुक अधरों की मुस्कानें
शरदकाल में जन्मी होंगी,
कोमल रेशमी काया तन की
माँ की रूप माधुरी लायी !
अनिता निहालानी
२२ दिसंबर २०१०
नन्हें बालक खेलें तट पर
ReplyDeleteअविरत खेल कौन सा जाने ?
सुन्दर!!!
पहली बार आया आपके ब्लॉग पर..
ReplyDeleteवाकई बहुत सुकून मिला इन भावांशों को पढ्कर..
बहुत बहुत आभार आपका...
बहुत अनुपम भाव.मन किसी दूसरे लोक में ही पहुँच जाता है.
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