शहंशाहों की रीत निराली
मंदिर और शिवाले छाने
कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा,
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया
मिला न किन्तु कोई किनारा !
व्रती रहे, उपवास भी किये
अनुष्ठान, प्रवास अनेकों,
योग, ध्यान, साधना साधी
माला, जप, विश्वास अनेकों !
श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
किया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !
किन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !
तभी अचानक स्मृति आयी
सदगुरु की दी सीख सुनाई,
कृत्य के बदले जो भी मिलता
कीमत उससे कम ही रखता !
जो मिल जाये अपने बल से
मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा उस रब से
पाकर उसको भी क्या होगा ?
कृपा से ही मिलता वह प्यारा
सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये
तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा !
वह तो हर पल आना चाहे
कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है
किससे अपनी प्रीत निबाहे !
इच्छाओं से हों जब खाली
तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !
अनिता निहालानी
९ मई २०११
इच्छाओं से हों जब खाली
ReplyDeleteतभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !
.... गहन चिंतन से ओतप्रोत सुन्दर भावमयी रचना..आभार
पूरी कविता गीत की धुन में पगी हुयी है, प्रत्येक परिच्छेद में एक झंकार है किन्तु इन पंक्तियों ने मन मोह लिया -
ReplyDeleteकिन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !
श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
ReplyDeleteकिया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !
बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना!