एक असीम गीत भीतर है
निर्मल जैसे शुभ्र हिमालय
स्वयं अनंत है व्यक्त न होता
यही उहापोह मन को डसता !
एक असीम गीत भीतर है
गूंज रहा जो प्रकट न होता
यही उहापोह मन को खलता !
खिल न पाता हृदय कुसुम तो
कलिका बनकर भीतर घुटता
यही उहापोह मन में बसता !
सुरभि निखालिस कैद है जिसकी
ज्योति अलौकिक कोई ढकता
यही उहापोह लिये तरसता !
सबके उर की यही कहानी
कह न पाए कितना कहता
देख उहापोह मन है हँसता !
अनिता निहालानी
२० मई २०११
मन को संयत करती सुन्दर रचना ..
ReplyDeleteachhi rachna
ReplyDeleteसुन्दरता से किया उहापोह का वर्णन ..!!
ReplyDeleteकल "शनिवासरीय चर्चा" में आपके ब्लाग की "स्पेशल काव्यमयी चर्चा" की जा रही है...आप आये और अपने सुंदर पोस्टों की सुंदर काव्यमयी चर्चा देखे और अपने सुझावों से अवगत कराये......at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDelete(21.05.2011)
सुन्दर ऊहापोह ...सटीक चित्रण
ReplyDeleteविकट उहापोह को व्यक्त करती कविता, धन्यवाद.
ReplyDeletebhut sunder shabd rachna...
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