Wednesday, October 30, 2024

विराध का दोनों भाइयों को साथ लेकर दूसरे वन में जाना


।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् 

अरण्य कांडम् 


तृतीय सर्ग:


विराध और श्रीराम की बातचीत, श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध पर प्रहार तथा विराध का इन दोनों भाइयों को साथ लेकर दूसरे वन में जाना 


तत्पश्चात वन गुंजाते, पूछा विराध ने, कौन हो तुम?

मुझसे कहो , कहाँ जाओगे ? सुन कर उत्तर दिया राम ने 

 

सदाचार का पालन करते, इक्ष्वाकु कुल के महा क्षत्रिय 

कारणवश वन में रहते हैं, अब तुम भी दो अपना परिचय 


यह सुनकर बोला विराध यह, सत्य पराक्रमी श्रीराम से

रघुवंशी नरेश सुनो तुम, हर्षित हुआ देता हूँ परिचय 


जव नामक राक्षस का पुत्र हूँ, शतहृदा मेरी माता है 

भू के सभी राक्षसों द्वारा, विराध मुझे कहा जाता है  


मैंने भीषण तप के द्वारा, वर पाया है ब्रह्मा जी से 

हूँ अवध्य, अभेद्य जगत में, मर सकता नहीं किसी शस्त्र से 


अब तुम दोनों इस युवती को, यहीं छोड़ दूर चले जाओ 

प्राण नहीं लूँगा तुम्हारे, इसे पाने की इच्छा त्यागो 


पापपूर्ण बात यह सुनकर, तब श्रीराम भर गये क्रोध से 

विकट राक्षस महा विराध से, आँखें लाल किए वे बोले 


धिक्कार तुझे ओ नीच, तेरा अभिप्राय बहुत खोटा है 

शीघ्र युद्ध में तू पाएगा, मृत्यु स्वयं की  खोज रहा है


जीवित नहीं बचेगा अब तू, कहा राम ने बाण चढ़ाया 

तीखा बाण कर अनुसंधान, सात बार उस पर बरसाया 


प्रज्वलित अग्नि के समान थे, तेजस्वी मोर पंख वाले 

रक्तरंजित हो गिरे भूमि पर, तन को भेद विराध के वे


घायल हो जाने पर उसने, अलग बिठाया था सीता को 

स्वयं हाथ में ले शूल, दोनों भाइयों पर टूट पड़ा था 


इन्द्रध्वज सम लेकर त्रिशूल, बड़े ज़ोर से करी गर्जना

महा भयंकर दुष्ट राक्षस, काल समान शोभा पाता था 


काल, अंतक, औ' यम की भाँति, बाणों की वर्षा की उस पर 

अट्टाहस कर खड़ा हुआ, जँभाई संग अंगड़ाई लेकर 


वरदान के बल से उसने, अपने प्राणों को रोक लिया था 

बाण गिर गये भूमि पर तन से, शूल उठा आक्रमण किया 


वज्र और अग्नि सम प्रज्वलित, चमक उठा वह शूल गगन में 

किंतु काट डाला बाणों से, बलवानों  में श्रेष्ठ राम ने 


मेरु पर्वत के शिला खंड सा, छिन्न भिन्न हो गिरा भू पर 

काले सर्पों सी तलवारें ले, दोनों टूट पड़े उस पर 


उस आघात से घायल होकर, दोनों को पकड़ना चाहा 

उसके अभिप्राय को जानकर, श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा 


अपनी इच्छा से यह राक्षस, हम दोनों को ढो ले जाये 

जिस मार्ग से यह जाता है, वही हमारा मार्ग बन जाये 


बल से उद्दंड बन विराध ने, काँधे पर बिठा दोनों को 

करता हुआ भीषण गर्जना, चलने लगा वन की ओर को 


प्रवेश किया घने एक  वन में, मेघों की घटा सा नीला 

बड़े वृक्ष, अनेक पक्षी थे, हिंसक पशुओं से भरा हुआ 



 इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्डमें तीसरा सर्ग पूरा हुआ।  



 


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