नवमोऽध्यायः
राजविद्याराजगुह्ययोग (शेष भाग)
अनभिज्ञ मेरे परम भाव से, मूढ़ मुझे मानव मानें
योगमाया से जन्मा हूँ मैं, इस रहस्य को न जानें
व्यर्थ है आशा, व्यर्थ कर्म है, व्यर्थ ज्ञान धारे हैं जो
मोहित हुए अज्ञानी जन वे, आसुर भाव के मारे हैं जो
कुन्तीपुत्र हे अर्जुन किन्तु, संत सदा ही मुझको भजते
दैवी भाव से भरे हुए वे, आदि कारण अक्षर है कहते
दृढ़ निश्चय उनका है अर्जुन, महिमा मेरी वे गाते
मेरे ध्यान में डूबे प्रेमी, नित्य स्तुतियाँ भी सुनाते
जो दूजे हैं पथिक ज्ञान के, निर्गुण की उपासना करते
अन्य कई जन विविध रूप में, मुझ विराट की पूजा करते
क्रतु हूँ मैं, यज्ञ भी मैं हूँ, स्वधा, औषधि, मंत्र भी मैं
घृत, अग्नि, हवन भी मैं हूँ, हे अर्जुन धाता भी हूँ मैं
फल कर्मों का देने वाला, माता-पिता, पितामह जान
ओंकार भी मैं ही तो हूँ, तीनों वेद मुझे ही मान
परमधाम हूँ, भर्ता भी हूँ, स्वामी भी, आधार सभी का
शरण भी मैं हूँ, सुह्रद अकारण, अविनाशी कारण सबका
शुभाशुभ देखने वाला, हेतु प्रलय का और उत्पत्ति
मुझमें स्थित होती सृष्टि, प्रलय काल में लय भी होती
मैं ही सूर्यरूप से तपता, वारिद मेघों से बरसाता
मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ, सत्-असत् का मैं ही ध्याता
वेदों में जिसका विधान है, ऐसे कर्मों को जो करते
पाप रहित सोमरस पायी, यज्ञों द्वारा स्वर्ग चाहते
स्वर्ग मिला करता है उनको, जब पुण्य क्षीण हो जाते
पुनः-पुनः काम्य को पाकर, मृत्युलोक में वे आते
जो अनन्य प्रेमी जन मुझको, निष्काम हुए से भजते
योग-क्षेम वहन मैं करता, वे निश्चिन्त रहा करते
जो अनन्य प्रेमी जन मुझको, निष्काम हुए से भजते
ReplyDeleteयोग-क्षेम वहन मैं करता, वे निश्चिन्त रहा करते.हम माने या न माने पर योग- क्षेम वही तो वहन कर रहा है.वरना क्या इतना बढिया अनुवाद घर बैठे बिठाये पढ़ने को मिलता .
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अत्यंत सुन्दर ..पठ्नीय ..
ReplyDeleteमैं ही सूर्यरूप से तपता, वारिद मेघों से बरसाता
ReplyDeleteमैं ही अमृत और मृत्यु हूँ, सत्-असत् का मैं ही ध्याता
ये मैं .. परम परमात्मा .. एक ही हूँ ... एक ही ओम एक ही ओंकार ... लाजवाब प्रस्तुति ...
कमाल की प्रस्तुति है - पहली बार यहाँ आई हूँ - अब तो आते ही रहूंगी ... :)
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