ईश्वर की प्रतिकृति
हर इंसान के भीतर कैद है
उसकी सही पहचान
बाहर मुखौटे लगाये घूमता है
चेहरा बदल-बदल देखता है !
कई बार माँगे हुए चेहरे, लगाये हुए मुखौटे
हो जाते हैं तार-तार...
वह बेचेहरा होकर तडपता है....
फिर एक नया मुखौटा तलाशा जाता है
दम तोड़ चुकी होती है
अपने भीतर झांक कर देखने की
ख्वाहिश...
जिए चला जाता है वह उधार की जिंदगी !
कुछ चेहरे उसे परिवार देता है
कुछ थमा देता समाज
कुछ अपनी सुविधा के लिये जुटा लेता...
और इस तरह ईश्वर की प्रतिकृति यह मानव
ईश्वर से विपरीत दिशा में चलने लगता है...
अनिता निहालानी
२५ मई २०११
सार्थक और भावप्रवण रचना।
ReplyDeleteऔर इस तरह ईश्वर की प्रतिकृति यह मानव
ReplyDeleteईश्वर से विपरीत दिशा में चलने लगता है...
और फिर अपनी पहचान ढूंढता है।
आद.अनिता जी,
ReplyDeleteआपने स्वार्थ में डूबे इंसान का सटीक चित्रण किया है !
आज सारे दुखों का कारण भी यही है कि हम ईश्वर और स्वयं से दूर होते जा रहें हैं !
आभार !
फिर एक नया मुखौटा तलाशा जाता है
ReplyDeleteदम तोड़ चुकी होती है
अपने भीतर झांक कर देखने की
ख्वाहिश...
जिए चला जाता है वह उधार की जिंदगी !
बहुत सच कहा है..आज हम अपनी स्वाभाविक प्रकृति और ईश्वर से कितने दूर हो चुके हैं..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
कई बार माँगे हुए चेहरे, लगाये हुए मुखौटे
ReplyDeleteहो जाते हैं तार-तार...
वह बेचेहरा होकर तडपता है....
phir bhi dhoondhta hai doosra mukhauta
बिलकुल ठीक कह रही हैं आप ! शुभकामनाये स्वीकारें ....
ReplyDeletesarthak kathan .
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