Wednesday, May 25, 2011

ईश्वर की प्रतिकृति


ईश्वर की प्रतिकृति

हर इंसान के भीतर कैद है
उसकी सही पहचान
बाहर मुखौटे लगाये घूमता है
चेहरा बदल-बदल देखता है !

कई बार माँगे हुए चेहरे, लगाये हुए मुखौटे
हो जाते हैं तार-तार...
वह बेचेहरा होकर तडपता है....

फिर एक नया मुखौटा तलाशा जाता है
दम तोड़ चुकी होती है
अपने भीतर झांक कर देखने की
ख्वाहिश...
जिए चला जाता है वह उधार की जिंदगी !

कुछ चेहरे उसे परिवार देता है
 कुछ थमा देता समाज
कुछ अपनी सुविधा के लिये जुटा लेता...
और इस तरह ईश्वर की प्रतिकृति यह मानव
ईश्वर से विपरीत दिशा में चलने लगता है...

अनिता निहालानी
२५ मई २०११  

7 comments:

  1. सार्थक और भावप्रवण रचना।

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  2. और इस तरह ईश्वर की प्रतिकृति यह मानव
    ईश्वर से विपरीत दिशा में चलने लगता है...

    और फिर अपनी पहचान ढूंढता है।

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  3. आद.अनिता जी,
    आपने स्वार्थ में डूबे इंसान का सटीक चित्रण किया है !
    आज सारे दुखों का कारण भी यही है कि हम ईश्वर और स्वयं से दूर होते जा रहें हैं !
    आभार !

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  4. फिर एक नया मुखौटा तलाशा जाता है
    दम तोड़ चुकी होती है
    अपने भीतर झांक कर देखने की
    ख्वाहिश...
    जिए चला जाता है वह उधार की जिंदगी !

    बहुत सच कहा है..आज हम अपनी स्वाभाविक प्रकृति और ईश्वर से कितने दूर हो चुके हैं..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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  5. कई बार माँगे हुए चेहरे, लगाये हुए मुखौटे
    हो जाते हैं तार-तार...
    वह बेचेहरा होकर तडपता है....
    phir bhi dhoondhta hai doosra mukhauta

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  6. बिलकुल ठीक कह रही हैं आप ! शुभकामनाये स्वीकारें ....

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