Monday, May 9, 2011

शहंशाहों की रीत निराली



शहंशाहों की रीत निराली

मंदिर और शिवाले छाने
कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा,
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया
मिला न किन्तु कोई किनारा !

व्रती रहे, उपवास भी किये
अनुष्ठान, प्रवास अनेकों,
योग, ध्यान, साधना साधी
माला, जप, विश्वास अनेकों !

श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
किया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !

किन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !

तभी अचानक स्मृति आयी
सदगुरु की दी सीख सुनाई,
कृत्य के बदले जो भी मिलता
कीमत उससे कम ही रखता !

जो मिल जाये अपने बल से
मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा उस रब से
पाकर उसको भी क्या होगा ?

कृपा से ही मिलता वह प्यारा
सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये
तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा !

वह तो हर पल आना चाहे
कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है
किससे अपनी प्रीत निबाहे !

इच्छाओं से हों जब खाली
तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !

अनिता निहालानी
९ मई २०११  







3 comments:

  1. इच्छाओं से हों जब खाली
    तभी समाएगा वनमाली,
    स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
    शहंशाहों की रीत निराली !

    .... गहन चिंतन से ओतप्रोत सुन्दर भावमयी रचना..आभार

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  2. पूरी कविता गीत की धुन में पगी हुयी है, प्रत्येक परिच्छेद में एक झंकार है किन्तु इन पंक्तियों ने मन मोह लिया -
    किन्तु रहा तू दूर ही सदा
    अलख, अगाध, अगम, अगोचर
    भीतर का सूनापन बोझिल
    ले जाता था कहीं डुबोकर !

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  3. श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
    किया सभी कुछ तुझे मान के,
    सेवा के बदले तू मिलता
    झेले दुःख भी यही ठान के !
    बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना!

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