चतुर्थ अध्याय (अंतिम भाग)
ज्ञानकर्मसन्यासयोग
यज्ञ से प्राप्त हुए अमृत का, कर अनुभव परमसुख पाते
जो न करते कोई साधना, दोनों लोकों में दुःख पाते
न जाने ऐसे कितने ही, यज्ञ कहे गए हैं वेदों में
मन, इन्द्रियों, तन से होते, तत्व से तू जान उन्हें
द्रव्यों से जो यज्ञ हो सम्पन्न, उनसे ज्ञान यज्ञ उत्तम है
सारे कर्मों का समापन, हो जाता है ज्ञान यज्ञ में
जो उस ज्ञान को पाना चाहे, ज्ञानीजन के निकट चला जा
भली भांति दंडवत करके, कपट रहित सेवा से पा
वे परम में रहने वाले, ज्ञानीजन हैं अति दयालु
तत्वज्ञान की बात कहेंगे, रख श्रद्धा, वे हैं कृपालु
फिर न कभी तू मोहित होगा, तत्वज्ञान उत्तम ज्ञानों में
पहले स्वयं में जग देखेगा, फिर दर्शन होंगे मुझ में
पापी से भी हो जो पापी, ज्ञान की नौका से तर जाये
जैसे अग्नि भस्मित करती, ज्ञानाग्नि कर्मों को जलाये
ज्ञान से बढ़कर कुछ न पावन, उसी ज्ञान को तू पायेगा
कर्मयोग से शुद्ध हुआ जो, उस मन में वह प्रकटायेगा
श्रद्धावान, जितेन्द्रिय साधक, सहज ज्ञान वह पा जाता
परम ज्ञान को पाकर तत्क्षण, परम शांति को पा जाता
जो संशय से ग्रस्त सदा है, अविवेकी, अश्रद्धालु भी
न लोक न परलोक ही, उसके लिये कभी सुखदायी
जो समस्त निज कर्मों को, प्रभु अर्पण कर देता है
संशय जिसके नष्ट हुए, जिसे विवेक का आश्रय है
जिसका अंतर वश में उसके, कर्म नहीं उसको बांधते
हे अर्जुन ! नाश कर तू भी, इस संशय का ज्ञान खड्ग से
समता को प्राप्त कर तू भी, कर्मयोग में हो स्थित
युद्ध हेतु फिर हो तत्पर, कर इसको भी परम समर्पित
काव्यमयी भावानुवाद बहुत अच्छा चल रहा है।
ReplyDeleteबहुत ज्ञानमयी और सुन्दर...हमेशा अगली कड़ी का इंतज़ार रहता है..आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छा और सरस अनुवाद कर रही हैं आप.
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कल 17/06/2011 को आपकी कोई पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है.
आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है .
धन्यवाद!
नयी-पुरानी हलचल
जिसका अंतर वश में उसके, कर्म नहीं उसको बांधते
ReplyDeleteहे अर्जुन ! नाश कर तू भी, इस संशय का ज्ञान खड्ग से
abhar ..