इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
घर खाली देख चला आये
उसे निरालापन भाता है,
सदा भीड़ में रहे अकेला
एक में सब समा जाता है !
तब कहाँ गयी पीड़ा उर की
जब कोई खुद में ठहर गया,
आस रही न कोई निराशा
विषाद न जाने कहाँ गया !
ना ज्वार रहा ना ही भाटा
इक रसता भीतर व्याप रही,
इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
सम रसता ही तब शेष रही !
अनिता निहालानी
१६ मई २०११
तब कहाँ गयी पीड़ा उर की
ReplyDeleteजब कोई खुद में ठहर गया,
आस रही न कोई निराशा
विषाद न जाने कहाँ गया !
जीवन के दर्शन को समेट दिया है आपने इन पंक्तियों में !
आभार !
ना ज्वार रहा ना ही भाटा
ReplyDeleteइक रसता भीतर व्याप रही,
इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
सम रसता ही तब शेष रही
यह स्थिति आ जाये तो सारे राग द्वेष खत्म हो जाएँ ...अच्छी प्रस्तुति
ऐसा चिंतन गहन साधना से ही आता है ...
ReplyDeleteएकरसता और समरसता का सुन्दर मिश्रण ।
ReplyDeletebhut gahan chintan kiya hai apne is rachna dwara...
ReplyDeleteआध्यात्मिक अनुभूति लिए रचना अच्छी लगी।
ReplyDeleteतब कहाँ गई उर की पीड़ा ,जब कोई खुद में ठहर गया .बेहतरीन प्रयोग .इस दौर की त्रासदी ही यही है ,व्यक्ति ठहर नहीं पा रहा है ,हाँफते हुए उपभोग भोग में शामिल है .दर्शन है जीवन का इस कविता में ,बिना दर्शन किये ,खुद से मिले बिना ,खफा खफा जी रहें हैं हमलोग .बेहतरीन राचना के लिए बधाई !
ReplyDeleteइसीलिये नींद आती है ,पर जो जागते हुए इस कला को सीख ले उसे फिर नींद की जरूरत ही कहाँ.
ReplyDeleteआप सभी का आभार ! 'ध्यान' ही वह कला है जो खुद से मिलाती है.
ReplyDeleteइक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
ReplyDeleteसम रसता ही तब शेष रही !
और शायद यही जिन्दगी हैं..!!
बहुत ही सुन्दर रचना, जीवन दर्शन का प्रतिरूप....आभार.
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