Monday, May 16, 2011

इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले


इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले

घर खाली देख चला आये
उसे निरालापन भाता है,
सदा भीड़ में रहे अकेला
एक में सब समा जाता है !

तब कहाँ गयी पीड़ा उर की
जब कोई खुद में ठहर गया,
 आस रही न कोई निराशा
विषाद न जाने कहाँ गया !

ना ज्वार रहा ना ही भाटा
इक रसता भीतर व्याप रही,
इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
सम रसता ही तब शेष रही !

अनिता निहालानी
१६ मई २०११

   


11 comments:

  1. तब कहाँ गयी पीड़ा उर की
    जब कोई खुद में ठहर गया,
    आस रही न कोई निराशा
    विषाद न जाने कहाँ गया !
    जीवन के दर्शन को समेट दिया है आपने इन पंक्तियों में !
    आभार !

    ReplyDelete
  2. ना ज्वार रहा ना ही भाटा
    इक रसता भीतर व्याप रही,
    इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
    सम रसता ही तब शेष रही

    यह स्थिति आ जाये तो सारे राग द्वेष खत्म हो जाएँ ...अच्छी प्रस्तुति

    ReplyDelete
  3. ऐसा चिंतन गहन साधना से ही आता है ...

    ReplyDelete
  4. एकरसता और समरसता का सुन्दर मिश्रण ।

    ReplyDelete
  5. bhut gahan chintan kiya hai apne is rachna dwara...

    ReplyDelete
  6. आध्यात्मिक अनुभूति लिए रचना अच्छी लगी।

    ReplyDelete
  7. तब कहाँ गई उर की पीड़ा ,जब कोई खुद में ठहर गया .बेहतरीन प्रयोग .इस दौर की त्रासदी ही यही है ,व्यक्ति ठहर नहीं पा रहा है ,हाँफते हुए उपभोग भोग में शामिल है .दर्शन है जीवन का इस कविता में ,बिना दर्शन किये ,खुद से मिले बिना ,खफा खफा जी रहें हैं हमलोग .बेहतरीन राचना के लिए बधाई !

    ReplyDelete
  8. इसीलिये नींद आती है ,पर जो जागते हुए इस कला को सीख ले उसे फिर नींद की जरूरत ही कहाँ.

    ReplyDelete
  9. आप सभी का आभार ! 'ध्यान' ही वह कला है जो खुद से मिलाती है.

    ReplyDelete
  10. इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
    सम रसता ही तब शेष रही !
    और शायद यही जिन्दगी हैं..!!

    ReplyDelete
  11. बहुत ही सुन्दर रचना, जीवन दर्शन का प्रतिरूप....आभार.

    ReplyDelete