Wednesday, March 30, 2011

चलो उगा दें चाँद प्रीत का

चलो उगा दें चाँद प्रीत का


चलो झटक दें हर उस दुःख को
जो तुमसे मिलने में बाधक,
 चाहो तो तुम्हें अर्पण कर दें
बन जाएँ अर्जुन से साधक !

चलो उगा दें चाँद प्रीत का
तुमसे ही जो करे प्रतिस्पर्धा
चाहो तो अंजुरी भर भर दें
भीतर उमग रही जो श्रद्धा !

चलो गिरा दें सभी आवरण
गोपी से हो जाएँ खाली
उर के भेद सब ही खोल दें
रास रचाएं संग वनमाली  !

फिर उपजेगा मौन अनोखा
जिससे कम की मांग व्यर्थ है
प्रश्न सभी खो जायेंगे तब
आत्म मिलन का यही अर्थ है !

क्रांति घटेगी उगेगा सूरज
भीतर सोया जब जागेगा,
परम खींचता हर पल सबको
आत्म क्षितिज तब रंग जायेगा !

अनिता निहालानी
३० मार्च २०११

3 comments:

  1. फिर उपजेगा मौन अनोखा
    जिससे कम की मांग व्यर्थ है
    प्रश्न सभी खो जायेंगे तब
    आत्म मिलन का यही अर्थ है !

    आपकी कविता की सुन्दर, भाव भरी पंक्तियों ने निःशब्द कर दिया !
    आभार अनिता जी !

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  2. चलो गिरा दें सभी आवरण
    गोपी से हो जाएँ खाली
    उर के भेद सब ही खोल दें
    रास रचाएं संग वनमाली !
    bahut pyaare bhaw

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  3. फिर उपजेगा मौन अनोखा
    जिससे कम की मांग व्यर्थ है
    प्रश्न सभी खो जायेंगे तब
    आत्म मिलन का यही अर्थ है !

    कमाल के भाव लिए है रचना की पंक्तियाँ .......

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