तू
जिधर-जिधर जाती है दृष्टि
तू ही नजर हमें आता है !
कभी पवन झंकोरा बन तपते
तन-मन को सहला जाता है,
बन बदली बरसता बन-बन
धरती को अंकुआ जाता है !
प्रखर सूर्य किरणों सँग नित
सृष्टि नई सजा जाता है,
मधुर चाँदनी की परतों में
सुस्व्प्नों में सुला जाता है !
खलिहानों में उगी फसल तू
बन नीर हिमालय से आता है,
तू भरता मिठास फलों में
कलियों–फूलों में मुस्काता है !
तू ही माँ के वात्सल्य में
शिशुओं को दुलरा जाता है,
अनुशासन बन कभी पिता का
जीवन-कला सिखा जाता है !
आचार्य बन शिक्षित करता
अर्जन योग्य बना जाता है,
सदगुरु बन के दीक्षित करता
पग-पग राह दिखा जाता है !
संगी-साथ रूप में मिलता
प्रेम का पथ पढ़ा जाता है,
तू ही अंतरंग बन जाता
अंतर रसमय कर जाता है !
अनिता निहालानी
२१ मार्च २०११
तू ही माँ के वात्सल्य में
ReplyDeleteशिशुओं को दुलरा जाता है,
अनुशासन बन कभी पिता का
जीवन-कला सिखा जाता है !
आद. अनिता जी,
समर्पण के सुन्दर भावों से अभिसिंचित मन को छूती अभिव्यक्ति !
आभार !
बेहद सुन्दर भावो को संजोया है ………आभार्।
ReplyDeleteसमष्टि-भाव की अभिव्यक्तिभरी कविता अच्छी है।
ReplyDeleteप्रखर सूर्य किरणों सँग नित
ReplyDeleteसृष्टि नई सजा जाता है,
मधुर चाँदनी की परतों में
सुस्व्प्नों में सुला जाता है !
अत्यंत भावपूर्ण रचना ,बधाई
सुन्दर, यही प्रेम है...
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
ReplyDeleteजानिए धर्म की क्रान्तिकारी व्याख्या।