नहीं जानती
उसने पूछा, तुम कौन हो ?
कहा मैंने, मैं हूँ नहीं, हो रही हूँ
हर क्षण कुछ नयी !
हर पल बढ़ रही हूँ, बन रही हूँ
तो कुछ घट भी रही हूँ
अपरिचित हूँ मै स्वयं के लिये भी,
क्या कौंधेगा अगले पल भीतर
नहीं जानती !
यह जीवन और जगत जैसा है
वैसा क्यों है, नहीं जानती !
भीतर जो घटता है
कहाँ है उस पर वश
एक पहेली की तरह यह जगत
खुलता जाता है हर क्षण
फिर भी कम नहीं होते दीखते रहस्य !
दिखता है यह जगत
छल से भरा
फिसल जाता है
मुट्ठी से रेत की तरह
ऐसा क्यों है
नहीं जानती !
अनिता निहालानी
७ मार्च २०११
भीतर जो घटता है
ReplyDeleteकहाँ है उस पर वश
एक पहेली की तरह यह जगत
खुलता जाता है हर क्षण
फिर भी कम नहीं होते दीखते रहस्य
बहुत सुन्दर भाव
दिखता है यह जगत
ReplyDeleteछल से भरा
फिसल जाता है
मुट्ठी से रेत की तरह
ऐसा क्यों है
नहीं जानती !
यह प्रश्न उत्तरविहीन है| भाव पूर्ण अभिव्यक्ति , आभार