Sunday, March 6, 2011

नहीं जानती

नहीं जानती

उसने पूछा, तुम कौन हो ?
कहा मैंने, मैं हूँ नहीं, हो रही हूँ
हर क्षण कुछ नयी !
हर पल बढ़ रही हूँ, बन रही हूँ
तो कुछ घट भी रही हूँ
अपरिचित हूँ मै स्वयं के लिये भी,
क्या कौंधेगा अगले पल भीतर
नहीं जानती !
यह जीवन और जगत जैसा है
वैसा क्यों है, नहीं जानती !

भीतर जो घटता है
कहाँ है उस पर वश
एक पहेली की तरह यह जगत
खुलता जाता है हर क्षण
फिर भी कम नहीं होते दीखते रहस्य !

दिखता है यह जगत
छल से भरा
फिसल जाता है
मुट्ठी से रेत की तरह
ऐसा क्यों है
नहीं जानती !

अनिता निहालानी
७ मार्च २०११

2 comments:

  1. भीतर जो घटता है
    कहाँ है उस पर वश
    एक पहेली की तरह यह जगत
    खुलता जाता है हर क्षण
    फिर भी कम नहीं होते दीखते रहस्य

    बहुत सुन्दर भाव

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  2. दिखता है यह जगत
    छल से भरा
    फिसल जाता है
    मुट्ठी से रेत की तरह
    ऐसा क्यों है
    नहीं जानती !
    यह प्रश्न उत्तरविहीन है| भाव पूर्ण अभिव्यक्ति , आभार

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