Monday, March 21, 2011

तू

तू


जिधर-जिधर जाती है दृष्टि
तू ही नजर हमें आता है !

कभी पवन झंकोरा बन तपते
तन-मन को सहला जाता है,
बन बदली बरसता बन-बन
धरती को अंकुआ जाता है !

प्रखर सूर्य किरणों सँग नित
सृष्टि नई सजा जाता है,
मधुर चाँदनी की परतों में
सुस्व्प्नों में सुला जाता है !

खलिहानों में उगी फसल तू
बन नीर हिमालय से आता है,
तू भरता मिठास फलों में
कलियोंफूलों में मुस्काता है !

तू ही माँ के वात्सल्य में
शिशुओं को दुलरा जाता है,
अनुशासन बन कभी पिता का
जीवन-कला सिखा जाता है !

आचार्य बन शिक्षित करता
अर्जन योग्य बना जाता है,
सदगुरु बन के दीक्षित करता
पग-पग राह दिखा जाता है !

संगी-साथ रूप में मिलता
प्रेम का पथ पढ़ा जाता है,
तू ही अंतरंग बन जाता
अंतर रसमय कर जाता है !

अनिता निहालानी
२१ मार्च २०११

7 comments:

  1. तू ही माँ के वात्सल्य में
    शिशुओं को दुलरा जाता है,
    अनुशासन बन कभी पिता का
    जीवन-कला सिखा जाता है !
    आद. अनिता जी,
    समर्पण के सुन्दर भावों से अभिसिंचित मन को छूती अभिव्यक्ति !
    आभार !

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  2. बेहद सुन्दर भावो को संजोया है ………आभार्।

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  3. समष्टि-भाव की अभिव्यक्तिभरी कविता अच्छी है।

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  4. प्रखर सूर्य किरणों सँग नित
    सृष्टि नई सजा जाता है,
    मधुर चाँदनी की परतों में
    सुस्व्प्नों में सुला जाता है !

    अत्यंत भावपूर्ण रचना ,बधाई

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  5. सुन्दर, यही प्रेम है...

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  6. बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

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