तुमने भेजा क्यों मरुथल में
क्या दुःख ही है मेरा सम्बल
पर जिस क्षण से देखा तुमको
हुआ प्रेम से अंतर निर्मल !
जिस पल लूँ विदा इस जग से मैं
विश्वास सभी को हो इसका
इस घट में छिपा वही तो था
झट तर जाये वह हो जिसका !
तुम तब भी तो अपने ही थे
थी जान और पहचान नहीं
अम्बर से तकते दो नयना
थे गीत सुप्त मुख गान नहीं !
तुम तब भी तो अपने ही थे
ReplyDeleteथी जान और पहचान नहीं
"सुन्दर रचना".....साधुवाद.
बहुत अर्थ पूर्ण पंक्तियाँ
ReplyDeleteआपकी कविता के प्रत्येक शब्द में गहरा अर्थ छुपा है ,इस अर्थपूर्ण कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई
आपको नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें..देर से पहुँचने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ,आशा है यह नव वर्ष आपके जीवन में ढेर सारी खुशियाँ लेकर आएगा ..शुक्रिया .
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