Saturday, January 29, 2011

न झाँका तो अपना मन !

न झाँका तो अपना मन !

तूने सब कुछ तो संवार दिया है, मेरे प्रभु !
तारों से आकाश
रंगों से प्रकाश
प्राणों से पवन
ऊष्मा से अगन

तूने सब कुछ तो लुटा दिया है, मेरे प्रभु !
रस छलकातीं नदियाँ
पर्वतों की घाटियाँ
सागरों की गहराइयाँ
मदमाती अमराइयाँ

   तूने सब कुछ तो सौंप दिया है, मेरे प्रभु !
अकारण स्नेह
महमाता मेह
करुणा का आंचल
विरह का जल

और तू छिप गया हमारे अंतर में !
हम निहारते रहे
सराहते, ढूंढते रहे
कभी धरा कभी गगन
न झाँका तो अपना मन !

अनिता निहालानी
३० जनवरी २०११  


  

4 comments:

  1. हम निहारते रहे
    सराहते, ढूंढते रहे
    कभी धरा कभी गगन
    न झाँका तो अपना मन !

    बहुत सटीक प्रस्तुति..मनुष्य अपने मन में ही नहीं झांकता..

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  2. तूने सब कुछ तो लुटा दिया है, मेरे प्रभु !
    रस छलकातीं नदियाँ
    पर्वतों की घाटियाँ
    सागरों की गहराइयाँ
    मदमाती अमराइयाँ

    प्रभु कृति का सुंदर वर्णन -
    भाव पूर्ण रचना

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  3. सुन्दर भाव पूर्ण रचना.

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  4. न झाँका तो अपने मन में ...कितनी सारगर्भित है ये पंक्तियाँ ... हमें मनन करना चाहिए पर ...
    भाव पूर्ण रचना

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