न झाँका तो अपना मन !
तूने सब कुछ तो संवार दिया है, मेरे प्रभु !
तारों से आकाश
रंगों से प्रकाश
प्राणों से पवन
ऊष्मा से अगन
तूने सब कुछ तो लुटा दिया है, मेरे प्रभु !
रस छलकातीं नदियाँ
पर्वतों की घाटियाँ
सागरों की गहराइयाँ
मदमाती अमराइयाँ
तूने सब कुछ तो सौंप दिया है, मेरे प्रभु !
अकारण स्नेह
महमाता मेह
करुणा का आंचल
विरह का जल
और तू छिप गया हमारे अंतर में !
हम निहारते रहे
सराहते, ढूंढते रहे
कभी धरा कभी गगन
न झाँका तो अपना मन !
अनिता निहालानी
३० जनवरी २०११
हम निहारते रहे
ReplyDeleteसराहते, ढूंढते रहे
कभी धरा कभी गगन
न झाँका तो अपना मन !
बहुत सटीक प्रस्तुति..मनुष्य अपने मन में ही नहीं झांकता..
तूने सब कुछ तो लुटा दिया है, मेरे प्रभु !
ReplyDeleteरस छलकातीं नदियाँ
पर्वतों की घाटियाँ
सागरों की गहराइयाँ
मदमाती अमराइयाँ
प्रभु कृति का सुंदर वर्णन -
भाव पूर्ण रचना
सुन्दर भाव पूर्ण रचना.
ReplyDeleteन झाँका तो अपने मन में ...कितनी सारगर्भित है ये पंक्तियाँ ... हमें मनन करना चाहिए पर ...
ReplyDeleteभाव पूर्ण रचना