Thursday, March 24, 2011

खुद से भी तो मिलना सीखो



खुद से भी तो मिलना सीखो


सद् गुरु कहते ‘हँसो हँसाओ’
खुद से भी तो मिलना सीखो,
जड़ के पीछे छिपा जो चेतन
उस प्रियतम को हर सूं देखो !

चलती फिरती है यह काया
चंचल मन इत् उत् दौड़ता,
भीतर उगते पुष्प मति के
चिदाकाश में वही कौंधता !

सत्य सदा एक सा रहता
था, है, होगा कभी न मिटता,
दृश्य बदलते पल-पल जग के
मधुर आत्मरस अविरल बहता !

दृष्टा बने जो बने साक्षी
निज आनंद महारस पाता,
राज एक झाँके उस दृग से
पूर्ण हुआ खुद में न समाता !

अनिता निहालानी
२५ मार्च २०११


8 comments:

  1. सत्य सदा एक सा रहता
    था, है, होगा कभी न मिटता,
    दृश्य बदलते पल-पल जग के
    मधुर आत्मरस अविरल बहता !
    gahre amit bhaw

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  2. अति उत्तम विवेचना…………जिस दिन खुद को जान लिया उस दिन पूर्णाकार हो गया।

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  3. बहुत सुंदर रचना ..... अर्थपूर्ण और सार्थक भाव ....

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  4. दृष्टा बने जो बने साक्षी
    निज आनंद महारस पाता,
    राज एक झाँके उस दृग से
    पूर्ण हुआ खुद में न समाता !....

    अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति...

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  5. बहुत ही खूबसूरत भावमय करते शब्‍द ।

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  6. सत्य सदा एक सा रहता
    था, है, होगा कभी न मिटता,
    दृश्य बदलते पल-पल जग के
    मधुर आत्मरस अविरल बहता !

    काव्य में
    एक अनोखा , अनुपम , अद्वितीय
    सत्य ...
    वाह !!

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  7. अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति|धन्यवाद|

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  8. होली की बहुत बहुत शुभकामनाये आपका ब्लॉग बहुत ही सुन्दर है उतने ही सुन्दर आपके विचार है जो सोचने पर मजबूर करदेते है
    कभी मेरे ब्लॉग पे भी पधारिये में निचे अपने लिंक दे रहा हु
    धन्यवाद्

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