Wednesday, December 28, 2011

आत्म दृष्टि(शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आत्म दृष्टि

ज्यों फेन, तरंग, बुलबुले, आदि स्वरूप से जल ही हैं
देह से अहंकार तक जग यह, एक शुद्ध आत्मा ही है

ज्यों घट, कलश, कुम्भ सब मिट्टी, सत् से ही है सारी सत्ता
माया से भेद दिखता है, आत्मनिष्ठ को सत् ही दिखता

ज्ञानी एक ही देख रहा है, अद्वैत में उसकी निष्ठा
भ्रम से द्वैत जगत में है, ‘मैं’ ‘तू’ का यह झगड़ा दिखता

परब्रह्म है आकाश सा निर्मल, निर्विकल्प, निस्सीम, अटल
निर्विकार, शून्य, अनन्य, परे ज्ञान से है निश्चल

है अद्वितीय, विस्तृत सब ओर, जीव रूप से वही हुआ है
ब्रह्म भाव आनंद रूप में, त्याग विषय वह ब्रह्म हुआ है

नहीं देह, न मन बुद्धि हो, ब्रह्म स्वरूप में निश्चय दृढ़ हो
शुद्ध आत्म स्वरूप को पाकर, सब दुखों से मुक्त रहो

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर व आनन्दमयी प्रस्तुति रही।

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  2. नहीं देह, न मन बुद्धि हो, ब्रह्म स्वरूप में निश्चय दृढ़ हो
    शुद्ध आत्म स्वरूप को पाकर, सब दुखों से मुक्त रहो

    सुन्दर प्रस्तुति....

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  3. सुन्दर प्रस्तुति....नववर्ष की शुभकामनायें

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  4. बहुत सुंदर प्रस्तुती बेहतरीन रचना,.....
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाए..

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  5. बहुत ज्ञानप्रद प्रस्तुति.....नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !

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