Saturday, December 3, 2011

असत् परिहार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

असत् परिहार

जीते जी जो मुक्ति पा ले, बाद मृत्यु के वही मुक्त है
अल्प मात्र भी भेद जो माने, नहीं हुआ वह ब्रह्म युक्त है

अणु मात्र भी भेद जो माने, उस अनंत ब्रह्म में साधक
भय को प्राप्त हुआ करता है, आत्मा का प्रमाद ही बाधक

दृश्य को जो माने द्रष्टा, दुःख का भागी ही होता है
श्रुति, स्मृति व युक्ति से, न आत्मा में स्थित रहता है

परम सत्य की खोज जो करता, मुक्त हुआ वह निज को जाने,
मिथ्या दृश्य के पीछे रहता, नष्ट हुआ वह दुःख ही जाने

तज असत् को आत्मनिष्ठ हो, दुःख को दूर हटा सकता है
विषयों का चिंतन दुःख भारी, आत्मज्ञान सुख दे सकता है

विषयों का निषेध हुए से, मन सहज आनंद से भरता
आनंद ही ईश्वर का लक्षण, जग का फिर हर बंधन कटता

जो विवेकी ज्ञानवान है, स्वाद मुक्ति का जिसने पाया
जानबूझ कर बालक वत् वह, नहीं असत् के पीछे धाया

जो देह आदि में आसक्त, मुक्त नहीं वह हो सकता
जिसने पायी है मुक्ति वह, देहासक्त नहीं हो सकता

जगा हुआ ज्यों नहीं सुप्त है, सोया हुआ नहीं जाग्रत
देहासक्त न मुक्त हुआ है, मुक्त नहीं देह में आसक्त
   



5 comments:

  1. परम सत्य की खोज जो करता, मुक्त हुआ वह निज को जाने,
    मिथ्या दृश्य के पीछे रहता, नष्ट हुआ वह दुःख ही जाने

    bahut gahan aur uchch vichar ...
    bahut sunder likha hai ...
    badhai ..

    ReplyDelete
  2. अति उत्तम श्रृंखला चल रही है।

    ReplyDelete
  3. सारगर्भित प्रस्तुति, आभार.

    कृपया मेरी नवीन प्रस्तुतियों पर पधारने का निमंत्रण स्वीकार करें.

    ReplyDelete
  4. जीते जी जो मुक्ति पा ले, बाद मृत्यु के वही मुक्त है
    अल्प मात्र भी भेद जो माने, नहीं हुआ वह ब्रह्म युक्त है

    जय हो!

    ReplyDelete
  5. सारगर्भित प्रस्तुति, बहुत सुन्दर आभार...

    ReplyDelete