श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
समाधि निरूपण
अहर्निश अभ्यास सतत् हो, मन ब्रह्म में लीन निरंतर
निर्विकल्प समाधि द्वारा, आनंद का अनुभव हो भीतर
इसी समाधि के अनुभव से, नष्ट हुई कामना ग्रंथि
कर्मों का भी लोप हुआ फिर, स्वतः हुई स्वरूप की सिद्धि
मनन श्रेष्ठ सौ गुना श्रवण से, लाख गुना श्रवण से ध्यान
अनंत गुना श्रेष्ठ समाधि, जिससे चित्त को होता ज्ञान
निर्विकल्प समाधि द्वारा, ब्रह्मज्ञान का होता अनुभव
मन की एक अवस्था चंचल, अन्य अवस्था भी है संभव
शांत हुए मन से अचल हो, चित्त ब्रह्म में हो स्थिर
ब्रह्म आत्मा के ऐक्य से, ध्वंस करो अज्ञान जो भीतर
मौन, अपरिग्रह और अलोभ, अकाम व एकांत निवास
योग का पहला द्वार यही है, इससे ही होता आभास
चित्त वृत्तियों के निषेध से, नाश कामना का होता
नहीं वासना शेष रहे तब, ब्रह्मानंद का अनुभव होता
वाणी का मन में लय होवे, मन का बुद्धि में हो लय
बुद्धि का साक्षी आत्मा में, आत्मा पूर्णब्रह्म में लय
देह, प्राण, इंद्रिय, मन के, या बुद्धि के सँग हो वृत्ति
उसी भाव का बोध रहेगा, जिसके साथ जुड़ेगी वृत्ति
इन उपाधियों से छूटा मन, जब खाली हो जाता है
तत्क्षण ब्रह्म झलकता उसमें, आनंद अनुभव आ जाता है
इन उपाधियों से छूटा मन, जब खाली हो जाता है
ReplyDeleteतत्क्षण ब्रह्म झलकता उसमें, आनंद अनुभव आ जाता है………………बस यही तो ब्रह्मनाद है अखंड अचल …………बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक्।
वन्दना जी, अभिनन्दन व आभार!
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