श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
समाधि निरूपण
निर्विकल्प समाधि द्वारा, आत्म स्वरूप का ज्ञान जो करता
अविद्या रूप हृदय ग्रंथि का, नाश तभी हुआ करता
परम आत्मा अद्वितीय है, ‘मैं’ ‘तू’ यह कल्पना उसमें
विघ्न रूप बनकर आती है, सविकल्प समाधि में
इन्द्रिय निग्रह योगी करता, विषयों से उपरति साधता
शांत चित्त से, क्षमा युक्त हो, समाधि का अभ्यास है करता
अविद्या से उत्पन्न हुए जो, ध्वंस करे हर एक विकल्प
आनंद पूर्वक ब्रह्म भाव में, रहे निष्क्रिय, निर्विकल्प
मन और इन्द्रियों को जो, लीन आत्मा में करता
जग बंधन से वही मुक्त है, न वह जो बस चर्चा करता
उपाधि के संयोग से ही, भेद आत्मा में होता
लय होने पर उपाधि का, केवल स्वयं ही रह जाता
एकाग्र चित्त हुआ साधक, सत्स्वरूप ब्रह्म में टिकता
ब्रह्म रूप ही हो जाता, ज्यों कीट भ्रमर होता
ध्यान मात्र करने से भ्रमर का, कीट भ्रमर हो जाता है
परमतत्व का चिंतन करते, परम भाव साधक पाता है
अति सूक्ष्म परमात्व तत्व है, स्थूल दृष्टि से कोई न जाने
अति सूक्ष्म बुद्धिमान ही, सूक्ष्म वृत्ति से उसको जाने
जैसे जलकर स्वर्ण शुद्ध हो, सभी मैल को तज देता है,
ध्यान अग्नि में मन जलने पर, तीनों गुण के पार हुआ है
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDelete