श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
वैराग्य निरूपण
वैरागी जन त्यागी होते, भीतर-बाहर दोनों के ही
जिसे मोक्ष की इच्छा जागी, वैरागी जन हुआ वही
इन्द्रियों का संयम भी करता, अहंकार को भी तज देता
ब्रह्मनिष्ठ विरक्त पुरुष ही, सदा अमानी होकर रहता
बोध और वैराग्य दोनों, जैसे पंछी के दो पर होते
बिना एक के मोक्ष न संभव, एक पंख से खग न उड़ते
वैरागी समाधि को पाता, समाधिस्थ ही बोधवान है
जगबंधन भी छूटे उसका, वही हुआ आनंद वान है
वैराग्य में छिपा महासुख, आत्मज्ञान भी स्वर्गिक सुख
मुक्ति का यह खुला द्वार है, क्यों सहते हो जग में दुःख
विषसम तज विषयों की आशा, मृत्युरूप अभिमान को त्यागो
देहाध्यास को छोड़ निरंतर, शुद्ध आत्मा में जागो
बोध और वैराग्य दोनों, जैसे पंछी के दो पर होते
ReplyDeleteबिना एक के मोक्ष न संभव, एक पंख से खग न उड़ते
बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक संदेश्।