Sunday, December 25, 2011

आत्म दृष्टि


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आत्म दृष्टि

साक्षी सबका, ज्ञान स्वरूप जो, मन उस आत्मा में स्थिर हो
धीरे-धीरे निश्चित होकर, सब ओर स्वयं को ही देखो

देह, मन, आदि है उपाधि, जो अज्ञान से ही उपजी है
इनसे रहित अखंड आत्मा, महाकाश सी सदा यहाँ है

जैसे गगन एक ही रहता, कई उपाधि चाहे उसकी
सदा मुक्त है एक आत्मा, अहंकार आदि हैं उपाधि

ब्रह्म से तृण तक सभी उपाधि, सभी अंत में मिथ्या है
एकरूप से स्थित परिपूर्ण, आत्मस्वरूप ही मात्र सत्य है

जिस वस्तु की जहाँ कल्पना, भ्रम से ही वह वहीं दीखती
ज्ञान हुए पर सत्य प्रकटता, कल्पित वस्तु खो जाती

जैसे रज्जु सर्प के भ्रम से, दुःख का कारण बन जाती
जग भी विलग स्वयं से लगता, जब आत्मविस्मृति हो जाती

स्वयं ही ब्रह्मा, स्वयं ही विष्णु, स्वयं ही इंद्र व शिवस्वरूप
स्वयं ही सारा जगत हुआ है, स्वयं से भिन्न न कोई रूप

स्वयं ही भीतर स्वयं ही बाहर, स्वयं ही आगे स्वयं ही पीछे
स्वयं ही दायें स्वयं ही बाएं, स्वयं ही ऊपर स्वयं ही नीचे


3 comments:

  1. bahut sundar aatm sakshatkaar karati rachna prstuti hetu aabhar!

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  2. स्वयं ही ब्रह्मा, स्वयं ही विष्णु, स्वयं ही इंद्र व शिवस्वरूप
    स्वयं ही सारा जगत हुआ है, स्वयं से भिन्न न कोई रूप

    ...बिल्कुल सत्य...बहुत प्रेरक प्रस्तुति..आभार

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  3. इतना गहरा ज्ञान इतने सरल शब्दों में ......सहज ही समझ आ गया जो आप ने कहना चाहा इस रचना के लिए आप का आभार,ऐसे ही लिख्रे रहिये.......आप मेरे ब्लॉग पर आईं ख़ुशी हुई देख कर .....शुक्रिया :)

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