श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
अधिष्ठान निरूपण
जैसे रज्जु देखते ही, सर्प भय नष्ट हो जाता
आत्मनिष्ठ होते साधक का, अज्ञान जनित दुःख मिट जाता
अग्नि के संयोग से जैसे, लौह भिन्न रूप धरता है
आत्मा के संयोग से ही मन, नाना रूप धरा करता है
प्रकृति के जितने विकार हैं, पल-पल रूप बदलते रहते
आत्मा सदा एक रसमय है, देहादि को असत् कहते
जो ‘मैं’ कहकर जाना जाता, वही अखंड साक्षी भीतर
अद्वितीय, चैतन्य स्वरूप वह, अन्तर्यामी, परम ईश्वर
सत्-असत् से सदा परे वह, आनंद घन परम आत्मा,
साक्षी भाव में टिका रहे जो, पाता वही है शांत आत्मा
सुषमा जी, आभार!
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