श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
प्रपञ्च का बाध
आत्मा में जो भी आरोपित, हर कल्पना का करे निरास
स्वयं अद्वितीय, अक्रिय पूर्ण, परब्रह्म सा करे विलास
मन जब स्थिर हुआ स्वयं में, निर्विकल्प ब्रह्म ही रहता
दृश्य, विकल्प खो जाता सब, कहने मात्र को ही रह जाता
एक ही तत्व ब्रह्म है केवल, जग मिथ्या कल्पना मात्र
निर्विकार है निराकर जो, भेद नहीं होता तब ज्ञात
द्रष्टा, दृश्य, दर्शन से शून्य, निर्विकार बस एक तत्व है
भेद नहीं जब उसमें संभव, कैसे जग का पृथक अस्तित्त्व है
प्रलयकाल का सागर हो ज्यों, कुछ भी शेष नहीं रहता
उसी एक में सब खो जाता, जगत ब्रह्म में लीन हो जाता
ज्यों प्रकाश में लीन हुआ तम, भ्रम लीन होता ज्ञान में
वह अद्वितीय, निर्विशेष तत्व, भेद सभी खो जाते उसमें
एकात्मक अद्वितीय तत्व है, भेद भला क्योंकर होता
सुख-स्वरूप सुषुप्ति में ज्यों, कोई भेद नहीं रहता
परमतत्व का बोध हुआ तो, विश्व कहीं खो जाता है
रज्जु सर्प में ज्यों खो जाती, जल मरीचिका में खो जाता
श्रुति का भी तो यही कथन है, द्वैत है केवल मिथ्या माया
एक ही अद्वैत तत्व है, भ्रम से ही जग जिसमें पाया
अप्रतिम ज्ञान...आभार
ReplyDeleteबेहद ज्ञानवर्धक्।
ReplyDeleteश्रुति का भी तो यही कथन है, द्वैत है केवल मिथ्या माया
ReplyDeleteएक ही अद्वैत तत्व है, भ्रम से ही जग जिसमें पाया
एक तत्व की ही प्रधानता ,कहो इसे जड़ या चेतन ...अच्छी प्रस्तुति .
परमतत्व का बोध हुआ तो, विश्व कहीं खो जाता है
ReplyDeleteरज्जु सर्प में ज्यों खो जाती, जल मरीचिका में खो जाता
gyaan...dhyaan vardhak.....!!