श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
प्रमाद
यदि शेष कर्म बंधन है, सावधान रह करो साधना
आनंद घन दिव्य रूप का, कर चिंतन हो ब्रह्म भावना
कभी प्रमाद न होने पाए, अति ही भारी यह दोष है
ऋषियों ने भी यही कहा है, अनर्थ रूप प्रमाद मृत्यु है
निज स्वरूप की खोज सदा हो, कभी विवेकी प्रमादी न हो
मोह इसी कारण जगता है, मोह से अहंकार न हो
अहंकार से बंधन होता, बंधन बड़ा क्लेशकारी है
आत्मविस्मृति विषयों में लगाती, बुद्धि दोष विक्षिप्त कारी
जल से यदि हटाया क्षण भर, ज्यों शैवाल पुनः ढक लेती
आत्मविचार विहीन पुरुष को, माया भी है पुनः घेरती
असावधानी से छूटी गेंद, सीढियों पर लुढ़कती जाती
वृत्ति लक्ष्य से जब छूटी तो, नीचे को ही गिरती जाती
विषयों का जब चिंतन होता, कामना पुनः जाग्रत होती
आत्मस्वरूप से च्युत हो जाता, विषयों में प्रवृत्ति होती
विवेकी जन प्रमाद न करे, आत्मसिद्धि को यदि पाना है
सजग हुआ हो चित्त समाहित, ब्रह्म भाव में यदि जाना है
कई कई बार पढ़ने लायक !
ReplyDeleteआभार !
विवेकी जन प्रमाद न करे, आत्मसिद्धि को यदि पाना है
ReplyDeleteसजग हुआ हो चित्त समाहित, ब्रह्म भाव में यदि जाना है
बहुत बढि़या।
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ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteआपकी सुन्दर रचना पढ़ी, सुन्दर भावाभिव्यक्ति , शुभकामनाएं.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteकाव्यानुवाद का आभार। बहुत सुन्दर और प्रेरणादायक!
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