Monday, November 14, 2011

ब्रह्म और जगत की एकता


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

ब्रह्म और जगत की एकता


सत्य, नित्य, शुद्ध है जो, ज्ञानस्वरूप, अनंत, अभिन्न
अंतरतम वह ब्रह्म तत्व है, उन्नति स्रोत, आनंद का घन

परम अद्वैत ही सत्य पदार्थ, कोई न दूजा सिवा आत्मा
जिसको बोध हुआ है इसका, एक है उसको ब्रह्म-आत्मा

विविध रूप का जो दिखता है, है अज्ञान ही इसका कारण
एक ब्रह्म ही इसके पीछे, निर्विकल्प, आनंद घन

मिट्टी से जो बना है घट, नहीं पृथक है वह मिट्टी से
कल्पित नाम मात्र की सत्ता, मिट्टी ही कण-कण में उसके

कथन श्रुति का यह उत्तम है, सकल विश्व है यह ब्रह्म ही
अधिष्ठान में जो आरोपित, पृथक नहीं है सत्ता उसकी

यदि सत्य मानें जगत भी, आत्मा की अनंतता कैसे 
श्रुति अप्रमाणिक होती, ईश्वर भी सत्य हो कैसे

परम तत्व के जो ज्ञाता हैं, ईश्वर ने किया है निश्चित
न तो मैं भूतों में स्थित, न ही वे मुझमें हैं स्थित   

 
      


   
  

4 comments:

  1. ज्ञान गंगा बहती रहे!

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  2. न तो मैं भूतों में स्थित, नही वे मुझमें हैं स्थित
    इस पंक्ति का अर्थ स्पष्ट करो तो समझने में आसानी होगी.

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  3. इसका अर्थ जहाँ तक मेरी समझ है,यह है कि जिस तरह घट में मिट्टी है और मिट्टी में घट है उस तरह भी ब्रह्म और जगत दो नहीं हैं,बल्कि जैसे आकाश में सब कुछ है और कण-कण में आकाश है पर उसे छूता नहीं है और पृथक है फिर भी उसके बिना कुछ भी हो नहीं सकता ऐसे ही ब्रह्म में सब है पर पृथक है और सबमें वही है...

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  4. ज्ञान का गहन सागर....

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