Wednesday, November 23, 2011

वासना त्याग


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

वासना त्याग

आत्मवस्तु का ज्ञान हुआ हो, अंतर में है छिपी वासना
‘कर्ता’ व ‘भोक्ता’ बनाती, प्रयत्न पूर्वक हरो कामना

देह-इन्द्रिय नहीं आत्मा, इनमें जो अहंता, ममता
इसे ही अध्यास हैं कहते, दूर करो इसे निष्ठा द्वारा

साक्षी भाव में रखकर स्वयं को, अनात्मा से पृथक करो
मन-बुद्धि की हर वृत्ति में, आत्मभाव का त्याग करो

यह जग कारावास है इससे, मुक्ति की जो करे कामना
लोहे की बेड़ी सम तज दे, मन में जो भी प्रबल वासना

जैसे मैल का लेप लगा हो, अगरु की सुगंध खो जाती
स्वच्छ हुए से ही बुद्धि भी, चन्दन सी तन को महकाती

अनात्म भाव ने ही ढक दी है, शुद्ध आत्मभावना सुखमय
निष्ठापूर्वक लगा रहे जो, स्पष्ट दिखेगी यह भावमय

जैसे-जैसे भीतर जाता, मन वासना को तज देता
जब पूर्ण मुक्ति पा लेता, आत्मा का अनुभव हो जाता

7 comments:

  1. यह जग कारावास है इससे, मुक्ति की जो करे कामना
    लोहे की बेड़ी सम तज दे, मन में जो भी प्रबल वासना

    ...बहुत सच और सार्थक...बहुत ज्ञानप्रद ...आभार

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  2. आपके इस रचना संसार में आना सदा अभिभूत करता है!

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  3. वासना का, कामनाओ का, इच्छाओ का त्याग यदि कर दे तो जीते जी मुक्ति मिल जाये।

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  4. कैलाश जी, अनुपमा जी व वंदनाजी, आभार व स्वागत !

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  5. पूर्ण भक्ति ही आत्मा का मिलन है ... अति सुन्दर ...

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  6. जैसे-जैसे भीतर जाता, मन वासना को तज देता
    जब पूर्ण मुक्ति पा लेता, आत्मा का अनुभव हो जाता..प्रेरणादाई आलेख

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  7. आत्मा का अनुभव आसानी से नहीं होता है।

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