श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
मनोमय कोष (शेष भाग)
मन ही भवबंधन का कारण, स्वप्न में भी यही जाल बिछाता
मन का ही विलास मात्र है, दृश्य प्रपंच नजर जो आता
इच्छाओं को दग्ध करे जो, विषयों को उस आग में होमे
मुक्त हुआ वह दृश्य प्रपंच से, शुद्ध हुआ वह मन फिर घूमे
नींद में मन जब लीन हो गया, कुछ भी शेष नहीं रह जाता
मात्र कल्पना ही है मन की, मनोराज्य कुछ और न होता
वायु मेघ उड़ा कर लाती, वही उसे उड़ा ले जाती
मन ही बंधन का कारण है, मनोशक्ति ही मुक्त कराती
मन ही राग से जीव को बांधे, देह आदि में प्रीत करा दे
पुनः विरसता पैदा करके, मन ही उससे मुक्त करा दे
रजोगुण से मलिन हुआ मन, जीव को बंधन में डालता
रज-तम रहित सतोगुण द्वारा, जीव सहज ही मोक्ष है पाता
विवेक व वैराग्य जगे हों, ऐसा मन उच्च कहलाता
विषयों रूपी जंगल में जब, मन रूपी वनराज घूमता
स्थूल-सूक्ष्म सभी विषयों को, देह, वर्ण, जाति आदि को
नित्य ज्ञान ही रहे दिखाता, गुण, क्रिया व फल आदि को
मन ही कल्पित करता बंधन, अध्यास का भी है कारण
रज, तम आदि दोष बढ़ाता, इससे होता जन्म-मरण
मन को ही अविद्या कहते, तत्वज्ञ और ज्ञानीजन
जैसे वायु मेघ उड़ाती, माया से हो विश्व भ्रमण
मोक्ष का जो भी अधिकारी है, मन का करे सदा वह शोधन
मुक्ति सहज प्राप्त होती है, करे राग का जो निर्मूलन
रज को शांत करे जो साधक, वचन सुने भर मन में श्रद्धा
मनोमय कोष है नहीं आत्मा, दृश्य नहीं हो सकता द्रष्टा
बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअति सुन्दर ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर ज्ञानप्रद...आभार
ReplyDeleteमन ही भवबंधन का कारण, स्वप्न में भी यही जाल बिछाता
ReplyDeleteमन का ही विलास मात्र है, दृश्य प्रपंच नजर जो आता बेहतरीन चित्रण कर रही है आप्……………ज्ञान गंगा बहा रही है हार्दिक आभार्।