श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
ब्रह्म और जगत की एकता
यदि सत्य होता विश्व तो, सुषुप्ति में भी प्रतीति होती
खो जाता है यह निद्रा में, स्वप्न समान अनुभूति होती
जैसे गुण से गुणी पृथक नहीं, ब्रह्म जगत से पृथक नहीं है
आरोपित है अधिष्ठान में, भ्रम से वही भास रहा है
जैसे चांदी दिखे सीपी में, जगत ब्रह्म में नजर आता है
इदं जगत में इदं ब्रह्म है, जगत भ्रम से देखा जाता है
महावाक्य विचार
‘तत्त्वमसि’ महावाक्य है, ब्रह्म-आत्मा एकत्व बताता
लक्ष्यार्थ में है एकता, वाच्यार्थ में कहा न जाता
ब्रह्म सूर्य, आत्मा जुगनू, वह दाता और यह सेवक है
वह सागर यह कूप है, ब्रह्म सुमेरु, आत्मा अणु है
मात्र उपाधि ही भेद का कारण, सत्य नहीं उपाधि भी
ईश्वर की उपाधि माया, पंचकोश है जीव उपाधि
राज्य उपाधि से है राजा, ढाल उपाधि से है सैनिक
राज्य, ढाल के न रहने पर, न ही राजा न ही सैनिक
ब्रह्म में कल्पित हुआ द्वैत जो, श्रुति निषेध करती है उसका
शेष बचे जो परे उपाधि के, वही जानने योग्य है सत्ता
जीव ब्रह्म का एक्य सिद्ध हो, तभी ज्ञान उनका होता है
‘वह यह है’ में ज्यों एकता तत्त्वमसि यही कहता है
इसी लक्षणा द्वारा ज्ञानी, जीव-ब्रह्म का ज्ञान हैं पाते
युगों युगों से इन्हीं वाक्यों से, दोनों की एकता बताते
यदि सत्य होता विश्व तो, सुषुप्ति में भी प्रतीति होती
ReplyDeleteखो जाता है यह निद्रा में, स्वप्न समान अनुभूति होती
जैसे गुण से गुणी पृथक नहीं, ब्रह्म जगत से पृथक नहीं है
आरोपित है अधिष्ठान में, भ्रम से वही भास रहा है
जैसे चांदी दिखे सीपी में, जगत ब्रह्म में नजर आता है
इदं जगत में इदं ब्रह्म है, जगत भ्रम से देखा जाता इन तीन दोहो मे ही सारा ज्ञान समाया है और यही शाश्वत सत्य है।
जैसे गुण से गुणी पृथक नहीं, ब्रह्म जगत से पृथक नहीं है
ReplyDeleteआरोपित है अधिष्ठान में, भ्रम से वही भास रहा है
कितनी सच्ची बात है... गूढ़ है मगर किसी न किसी पल हर किसी को इस सत्य की अनुभूति अवश्य होती है!
सुंदर सत्य विचारों से सजी उत्तम पोस्ट...
ReplyDeleteवंदना जी व धीरेन्द्र जी, आभार श्रद्धासुमन पर आने के लिये !
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