Saturday, November 5, 2011

विज्ञानमय कोष


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

विज्ञानमय कोष

ज्ञान इन्द्रियों के सँग बुद्धि, विज्ञानमय कोष कहाता
कर्तापन के स्वभाव वाला, चेतना का प्रतिबिम्ब दिखाता

मैं हूँ ज्ञाता, क्रियावान भी, देह, इन्द्रियों का अभिमानी
निकट आत्मा के यह रहता, भ्रम से इसने सत्ता मानी

स्वयं प्रकाशित निर्विकार जो, प्राणादि में स्फुरित होता
मन, बुद्धि की उपाधि वश ही, कहलाता है कर्ता, भोक्ता

बुद्धि की उपाधि पाकर, उससे एकीभाव में रहता
सात्विक होते हुए भी खुद को, खुद से वह पृथक देखता

एक रूप है सदा आत्मा, किन्तु उपाधि वश है भ्रमता
ज्यों अविकारी अग्नि स्वयं में, लोहे के समान चमकता

शिष्य पूछता तब सद्गुरु से, कैसे छूटें जन्म-मरण से
जीव भाव अनादि काल से, कैसे टूटे भाव प्रबल ये

सुनो वत्स हो सावधान तुम, भ्रमवश जो की गयी कल्पना
नहीं माननीय हो सकती, टूटेगी ही यह भ्रमणा

जैसे भ्रम नीलता नभ की, निर्विकार में सब विकार हैं
है असंग, निष्क्रिय जो, उसमें दोष सब असार हैं

साक्षी, निर्गुण है अक्रिय, आनंद व ज्ञान स्वरूप
जीवभाव भुद्धि के भ्रम से, नहीं सत्य अवस्तुरूप

जैसे रज्जु सर्प बना है, जब तक, तब तक भ्रम रहता
वैसे ही जब तक प्रमाद है, जीव भाव की है सत्ता

नींद खुले से जैसे जग में, स्वप्न लोक तिरोहित होता
ज्ञानोदय से जीवभाव भी, मूल सहित नष्ट हो जाता

है अनादि पर नित्य नहीं है, जीव भाव सदा न रहता
मिथ्या ज्ञान है कारण जिसका, ज्ञान हुए से नहीं ठहरता

ब्रह्म जीव का एक्य भाव ही, ज्ञान वास्तविक कहलाता
श्रुतियों का भी यही वचन है, जीव भाव निवृत्त हो जाता

आत्म-अनात्म का जगे विवेक तो, ब्रह्म जीव एकता सधती 
अहं दोष मुक्त होने पर, आत्मा भी प्रकाशित होती

सत्-आत्मा के विचार से, असत् की निवृत्ति होती
विज्ञानमय कोष अनित्य, बुद्धि न नित्य हो सकती 

3 comments:

  1. है अनादि पर नित्य नहीं है, जीव भाव सदा न रहता
    मिथ्या ज्ञान है कारण जिसका, ज्ञान हुए से नहीं ठहरता

    ...बहुत सारगर्भित सुंदर प्रस्तुति...आभार

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  2. आप कमाल का अनुवाद कर रही हैं।
    शुभकामनाएं आपको।

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