Tuesday, November 8, 2011

आनंद मय कोष


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आनंद मय कोष

आनंद स्वरूप आत्मा के, प्रतिबिम्ब से जो चुम्बित होता
तमोगुण से प्रकट हुआ, आनंद मय कोष कहाता

प्रिय, मोद, प्रमोद से युक्त, अभीष्ट प्राप्ति पर हो प्रकट
पुण्य कर्म उदय होने पर, सुख स्वरूप होता निकट

नींद में भी आनंद ही मिलता, भासित भीतर ही होता
जागृत व स्वप्न में भी, यत्किंचित आभासित होता

आनन्दमय नहीं परात्मा, यह भी है प्रकृति विकार
शुभकर्मों से उत्पन्न होता, स्थूल शरीर इसका आधार

पंचकोशों का कर निषेध, जो बचता है वही आत्मा
तीन अवस्थाओं का साक्षी, निर्विकार, निर्मल परात्मा

स्वयं प्रकाश, पृथक कोशों से, श्रुति जिसका गायन करती
सत् रूप वह शुद्ध स्वरूप, उसे न छू पाती प्रकृति

आत्मस्वरूप क्या है

पंच कोष मिथ्या हैं यदि तो, शून्य शेष रह जाता है
हे सदगुरु ! कृपा कर कहिये, आत्मा कौन कहाता है

हे साधक ! तू कुशल बड़ा है, तूने निर्णय उचित लिया है
ज्यों अहंकार आदि विकार हैं, अभाव भी उनका होता है

जो अनुभव करता है इनको, स्वयं न अनुभव में आता
अपनी सूक्ष्म बुद्धि से उसको, ज्ञानी सत आत्मा मानता

जो भी जिसका करता अनुभव, साक्षित्व आत्मा ही करता
कोई नहीं साक्षी उसका, जिसका कोई न अनुभव होता

स्वयं को स्वयं से अनुभव करता, स्वयं का साक्षी है आत्मा
इससे परे न दूजा कोई, और न कोई अंतर आत्मा

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में, अहं रूप से स्फुरित होता
मन, बुद्धि, चित्त आदि को, साक्षी भाव से सदा देखता

घट जल में ज्यों प्रतिबिम्ब सूर्य का, मूढ़ उसे ही सूर्य माने
अज्ञानी भी चिदाभास को, भ्रम से अपना आप ही जाने

2 comments:

  1. आपके पोस्ट पर आना सार्थक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । सादर।

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  2. स्वयं को स्वयं से अनुभव करता, स्वयं का साक्षी है आत्मा
    इससे परे न दूजा कोई, और न कोई अंतर आत्मा
    शाश्वत सत्य!

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