श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
साधन-चतुष्टय (चार साधन) (शेष भाग)
चिंता व शोक से दूर, साधक सब कष्टों को सहता
तितिक्षा की साधना करे जो, प्रतिकार का भाव न रखता
शास्त्र सत्य हैं, गुरु सत्य है, ऐसा मन में दृढ विश्वास
श्रद्धा इसी को कहते मुनि जन, याद रहे श्वास-प्रश्वास
बुद्धि सदा ब्रह्म में स्थित, समाधान इसको ही कहते
मन की इच्छा पूर्ति हो रहे, समाधान न इसको कहते
अहंकार से देह पर्यन्त, जितने कल्पित बंधन बांधे
मुमुक्षत्व की चाह है जिसमें, निज स्वरूप से उन्हें तजे
मोक्ष कामना तीव्र न हो यदि, गुरु कृपा से फल देती है
वैराग्य व षट् सम्पति, शनैः शनैः इसे बढा देती है
तीव्र मुमुक्षत्व और वैराग्य, मन का निग्रह शीघ्र कराते
इन्द्रियां भी हो संयमित रहतीं, षट् सम्पति भी पा जाते
जहाँ मंद है अति वैराग्य, मुमुक्षत्व भी तीव्र नहीं है
शमादि भी नहीं टिकेंगे, मरुथल में ज्यों जल नहीं है
सर्व कारणों में मुक्ति के, सबसे बढकर है भक्ति
आत्मतत्व का अनुसंधान, निज स्वरूप की खोज ही भक्ति
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeleteआत्मतत्व का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई ||
ReplyDeleteसारगर्भित प्रस्तुति के लिए बधाई!
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