Monday, September 12, 2011

सप्तदशोऽअध्यायः (अंतिम भाग) श्रद्धात्रयविभागयोग


सप्तदशोऽअध्यायः (अंतिम भाग)
श्रद्धात्रयविभागयोग

देव, ब्राह्मणों, गुरुजनों का, सादर पूजन ज्ञानीजन का
शुद्धि, सरलता और अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तप ये सब तन का

प्रिय, हितकारी, सत्यवचन जो, पठन वेद शास्त्रों का
नाम जप व सुमिरन आदि, वाणी का तप कहलाता

आह्लाद व शांत भाव, प्रभु स्मरण, मन का निग्रह
अंतःकरण की भाव शुद्धि, मन सम्बन्धी तप है यह

तन, मन, वाक् के तप सात्विक, यदि किये निष्काम भाव से
जो योगी श्रद्धा से करते, रहते हैं वे परम भाव में

आदर की यदि चाह हो मन में, दम्भ या स्वार्थ हित किया 
हो अनिश्चित, क्षणिक फलवाला, ऐसा तप राजस कहलाता

मूढ़ भाव से हठ पूर्वक, मन, वाणी, तन को पीड़ा दे
ऐसा तप तामस ही है, यदि अन्य का अनिष्ट चाह के

देश, काल, पात्रता लख के, कर्त्तव्य वश दान दिया है
प्रत्युपकार की नहीं है आशा, ऐसा दान सात्विक है

क्लेशपूर्वक, फलेच्छा से जो भी दान दिया जाता है
मान. बड़ाई की आशा हो, दान वह राजस कहलाता है

ॐ तत् सत् तीन तरह का, नाम ब्रह्म का है यह सुंदर
सृष्टि आदि काल में जिससे, रचे यज्ञ, वेद व ब्राह्मण

वेद मंत्रों को उच्चारें, शास्त्र विधि से यज्ञ जो करते
ॐ का ही उच्चारण करके, दान व तप आरम्भ वे करते

तत् अर्थात वही यह सब है, फल इच्छा वे न करते
मात्र लोक संग्रह हेतु, यज्ञ आदि किया करते

सत् से परम ‘सत्य’ कहाता, वही श्रेष्ठ है यह बताता
उत्तम कर्म भी सत् कहाते, प्रभु हित कर्म सत् कहाता

श्रद्धा बिन जो यज्ञ किया हो, दान, तप या कोई कर्म हो
वह असत् ही कहलायेगा, है विफल लोक या परलोक हो

 


     

2 comments:

  1. ॐ तत् सत् तीन तरह का, नाम ब्रह्म का है यह सुंदर
    सृष्टि आदि काल में जिससे, रचे यज्ञ, वेद व ब्राह्मण
    तत् अर्थात वही यह सब है, फल इच्छा वे न करते
    मात्र लोक संग्रह हेतु, यज्ञ आदि किया करते

    सत् से परम ‘सत्य’ कहाता, वही श्रेष्ठ है यह बताता
    उत्तम कर्म भी सत् कहाते, प्रभु हित कर्म सत् कहाता

    satya ka arth udghatit kar diya.

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