गुरुद्वार पर
आत्मतत्व का जो जिज्ञासु, जिसने वैराग्य साधा
षट् सम्पत्ति, विवेक पास हैं, पथ में कोई न बाधा
सद्गुरु के निकट वह जाये, जिसे मोक्ष की अभिलाषा
साधन चार में कुशल हुआ जो, आत्म ज्ञान की हो आशा
ब्रह्म निष्ठ दया के सागर, शांत मना निष्पाप हों जो
प्रसन्न चित्त, निकट जा उनके, प्रश्न करे सद्गुरु से वो
करुणा सागर सद्गुरु को, नमन करे वह बारम्बार
भव सिंधु में डूब रहा हूँ, कृपा प्रदान कर, करो उद्धार
जगत अग्नि में मैं दग्ध हूँ, कंपित व भयभीत अति
शरण में आया हूँ गुरुवर, रक्षक तुम बिन कोई नहीं
आप स्वयं तो पार हुए हैं, अन्यों पर भी कृपा अपार
लोक हित स्वभाव आपका, मृदु हो जैसे वसंत बहार
सूर्य जिसे तपाया करते, चन्द्र करे धरा को शीतल
सब लोगों की पीड़ा हरते, करुणा के सागर तुम निर्मल
स्वर्ण कलश सम हृदय तुम्हारा, जिसमें अद्भुत वचन भरे हैं
एक दृष्टि में हर लेते हो, कृपा दृष्टि से कई तरे हैं
मेरी गति क्या होने वाली, नहीं जानता, हे सद्गुरु !
कैसे, क्या उपाय करूं मैं, रक्षा करो, दुःख नाश ! प्रभु
सुन्दर और सार्थक रचना के लिए बहुत- बहुत बधाई .
ReplyDeleteबिन गुरु ज्ञान तो मिलने से रहा। जो असीम है, अथाह है और पथ प्रदर्शक है उस गुरु को समर्पित यह काव्य रचना बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteबहुत भक्तिपूर्ण गुरूवंदन..आभार
ReplyDeleteआभार!
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