अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग)
मोक्षसंन्यासयोग
ज्ञान, कर्म व कर्ता के भी, तीन भेद गुणों अनुसार
मैं तुझसे ये सभी कहूँगा, भली प्रकार तू इन्हें विचार
जिस ज्ञान से पृथक जनों में, व्यापक एक आत्मा दिखता
ऐसा ज्ञान सात्विक होता, सम भाव को जो बढ़ाता
जिस ज्ञान के द्वारा मानव, भिन्न भाव भिन्न में देखे
उस ज्ञान को राजस जान, जो भेद बुद्धि को बढाये
एक देह में हुआ आसक्त, युक्ति हीन जो तुच्छ ज्ञान है
तत्व का जिसमें अर्थ नहीं है, ऐसा ज्ञान तामसिक ही है
शास्त्रविधि से नियत कर्म जो, कर्ता का अभिमान न हो
वह सात्विक कहलाता है, जो राग-द्वेष के बिना किया हो
अहंकारी पुरुष के द्वारा, कर्म हुआ जो अत्यधिक श्रम से
राजस कर्म वह कहलाता है, शीघ्र ही जिसका फल वह चाहे
बिना विचारे शुरू किया जो, करने की क्षमता न जांची
हानि उठाकर हिंसा द्वारा, तामसिक है, कर्म हो जो भी
असंग, निरहंकारी कर्ता हो, धैर्य और उत्साह युक्त
कार्य सिद्ध हो अथवा न हो, सात्विक कर्ता सम भावित
लोभी, आसक्त, कर्म फल चाहे, कष्ट दूसरों को देता
अशुद्ध आचारी राजस है वह, हर्ष-शोक में लिप्त हुआ
जो कर्ता है धूर्त, अशिक्षित, अभिमानी, आलसी, चिंतित
नष्ट करे अन्यों की जीविका, दीर्घसूत्री वह है तामसिक
तीन तरह की ही होती है, बुद्धि और धृति भी अर्जुन
सतो, रजो व तमो गुणी, अब करता मैं इनका वर्णन
प्रवृत्ति- निवृत्ति क्या है, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के भेद को
बुद्धि सात्विक जो जानती, भय-अभय, बंधन-मोक्ष को
धर्म-अधर्म जो नहीं जानती, कर्त्तव्य भी न पहचाने
वह बुद्धि राजसिक जान, क्या है अकर्त्तव्य, न जाने
तमोगुण से घिरी जो बुद्धि, अधर्म को ही धर्म मानती
सबमें ही विपरीत देखती, दुःख में ही सुख माना करती
मन, प्राण व इन्द्रियों को, भजन, ध्यान आदि में लगाती
बुद्धि योग में युक्त करे जो, वह धृति सात्विकी कहलाती
तमोगुण से घिरी जो बुद्धि, अधर्म को ही धर्म मानती
ReplyDeleteसबमें ही विपरीत देखती, दुःख में ही सुख माना करती
satya hai
सत्य बचन|
ReplyDeleteअनीता जी - धन्यवाद
ReplyDeleteगीता पर कुछ पढने को मिलता है - तो बहुत अच्छा लगता है | हर बार नए अर्थ सामने आते हैं | मैं भी प्रयास करती रहती हूँ कि इसे अधिक से अधिक समझ सकूं - परन्तु यह विराट है | आप बहुत सरल शब्दों में लिख रही हैं यहाँ - आसानी से समझ भी आता है यह एक्सप्रेशन |
धन्यवाद भी, बधाईयाँ भी
:)
गीता ज्ञान को सरलता से प्रस्तुत करती सभी कड़ियाँ संग्रहणीय हैं!
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