Thursday, September 22, 2011

अष्टदशोऽअध्यायः(अंतिम भाग) मोक्षसंन्यासयोग


प्रिय ब्लोगर मित्रों, आज भगवदगीता के भावानुवाद की अंतिम कड़ी है, दिनांक २७ मई २०११ को मैंने इसे प्रारम्भ किया था कृष्ण कृपा तथा आप सभी सुधी पाठकों के सहयोग से यह कार्य आज पूर्ण हुआ है. आशा है भविष्य में भी आप इसी तरह श्रद्धा सुमन पर अपना प्रेम बनाये रखेंगे.  



अष्टदशोऽअध्यायः(अंतिम भाग)
मोक्षसंन्यासयोग


गुह्तम ज्ञान पुनः कहता हूँ, परम हितकारी, हे अर्जुन !
मेरा अतिशय प्रिय भक्त है, रहस्य युक्त वचन यह सुन

मुझमें मन वाला हो जा, भक्त हुआ मेरा पूजन कर
कर प्रणाम, मुझे पायेगा, सत्य कहूँ, तू मेरा प्रियवर

सब धर्मों को तज के केवल, एक शरण में मेरी आ
शोक न कर सर्व शक्तिमय मैं, सब पापों से मुक्त करूँगा

जो न संयमी, न ही एकनिष्ठ, रत हैं जो न भक्ति में
द्वेष यहाँ जो करते मुझसे, गुह्तम ज्ञान न कहो उन्हें

परम रहस्य मेरा यह अनुपम, जो प्रेमी भक्तों को कहेगा
वसुंधरा पर उससे बढकर, मेरा प्रिय कभी न होगा

दोष दृष्टि से रहित श्रद्धालु, इस शास्त्र का श्रवण करेगा
वह पाप से मुक्त हुआ नर, श्रेष्ठ लोक को प्राप्त करेगा

एकीभाव से सुना क्या तुमने, मोह नष्ट हुआ क्या अर्जुन
गीता ज्ञान को सुनते-सुनते, हुआ तेरा अज्ञान विनष्ट ?

कृपा आपकी पाई अच्युत !, मोह विनष्ट हुआ है मेरा
पुनः पा गया स्मृति अपनी, संशय रहित हुआ मन मेरा

हे केशव ! मैं वही करूँगा, जो कहते हैं आप मुझे
हर्षित हूँ पा कृपा आपकी, अब कोई संशय न मुझे  

संजय बोले धृतराष्ट्र से, कितना अद्भुत यह संवाद
वासुदेव भगवान कृष्ण ने, पृथा पुत्र को दिया यह ज्ञान

दिव्य दृष्टि पायी थी मैंने, हुआ समर्थ मैं योग श्रवण को
परम गुप्त इस गहन ज्ञान को, कहा कृष्ण ने जब अर्जुन को

पुनः पुनः स्मरण करता हूँ, गोपन मंगलमयी वचनों को
केशव, पार्थ के मध्य घटी, अद्भुत इस शुभ वार्ता को

उस अति विलक्षण विश्व रूप को, पुनः पुनः स्मरण करता  
परम आश्चर्य से भर जाता, बार-बार मन हर्षित होता

जहां कृष्ण योगेश्वर संग हैं, अर्जुन वीर गांडीव धारी
वहीं विजय और श्री है, विभूति अचल, नीति न्यारी



1 comment:

  1. वाह आपने इतने दिन जो ज्ञानगंगा मे गोते लगवाये हैं उसके लिये आपके आभारी हैं।

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